Monday, October 20, 2014

दीवाली

दीवाली
एक गंठड़ी मिली
मिट्टी से भरी
फटे -पुराने कपड़ो की
कमरे की पंछेती पर पड़ी !
यादे उभरने लगी
खादी का कुर्ता ,
बाबूजी का पर्याय
बेलबूटे की साडी साडी ,
जो माँ को शादी की पचासवीं वर्ष गांठ पर
बाबू जी ने उपहार में दी थी !
चंद उंगल के मेरे जन्म वाले कपडे
माँ के हाथो बने
गुड्डू की गुड़िया
धरोहर सी बनी मेरे घर की ये वस्तुएं
कबाड़ में पड़ी !
यादे , फिर उभार दी ह्रदय पर दीवाली ने
झाड़ -पौंछ , रंगाई -पुताई  बीच !
सुनील गज्जाणी

Saturday, October 18, 2014



जनम सिद्ध
 कौतुहल हो कर मैंने पूछा उससे -
तुम्हारे ललाट पर ये ताला क्यूँ ,
और किसने लट काया ?
वो बोला-
हुज़ूर ! ये मेरे ही शरीर का अंग है
हमारा जन्म सिद्ध अधिकार
मेरे पुरखो के भी
मेरे भी
और मेरी सतां के भी है
खोजता हूँ , इस ताले कि चाबी
चिलचिलाती धूप में
तरबतर हो कर
मगर असफल !
जंगदार हो गया ताला
खुलता ही नहीं
बंधुआ मज़दूर कि भांति
बंधा है हमारी किस्मत से
महज तिलक समझ इसे
ढांढस बंधाते है एक दूजे का
शायद , अगले जनम में चाबी साथ मिले
यही सोच , दिहाड़ी पर लग जाता हूँ मैं !
मैं विस्मित हो
उसे जाते देखता रहा
उसने कश लिया बीड़ी का
कड़ाही उठाई और जुट गया अपने कर्म में
कोई क्षोभ नहीं चेहरे पर उसके
मगर मेरे !
सुनील गज्जाणी