Saturday, May 4, 2013

कविताएँ



.............................आता है नज़र  

सपेरा, मदारी खेल नट-नटनी का
बतलाओ जरा कहाँ आता है नजर ?

खेल बच्चो का सिमटा कमरो में अब,
मासूमों को लगी कैसी ये नजर ?

वैदिक ज्ञान, पाटी-तख्ती, गुरू-शिष्य अब,
किस्सों में जाने सिमट गए इस कदर,
नैतिकता, सदाचार अब बसते धोरों में
फ्रेम में टंगा बस आदमी आता है नजर।

चाह कंगूरे की पहले होती अब क्यूं,
धैर्य, नींव का कद बढने तक हो जरा,
बच्चा नाबलिग नही रहा इस युग में
बाल कथाऍँ अब कहीं सुनता आता है नजर ?

अपने ही विरुद्ध खडे किए जा रहा
प्रश्न पे प्रश्न निरुत्तर मै जाने क्यूं ?
सोच कर मुस्कुरा देता उसकी ओर
सच, मेरे लिए प्यार उसमें आता है नजर।
 सुनील गज्जानी

6 comments:

Satish Saxena said...

अक्सर पेन पेन्सिल लेकर
माँ कैसी थी ?चित्र बनाते,
पापा इतना याद न आते
पर जब आते, खूब रुलाते !
उनके गले में,बाहें डाले , खूब झूलते,मेरे गीत !
पिता की उंगली पकडे पकडे,चलाना सीखे मेरे गीत

Anju (Anu) Chaudhary said...

अब वक्त हा मंज़र ही बदला-बदला नज़र आता है



खूबसूरत अहसास लिए हुए लेखनी

जयकृष्ण राय तुषार said...

सुंदर रचना |

ashok andrey said...

yeh bahut hee sarthik rachna hai.mujhe apne samay ki yaad aa gee.jab ham inka aanand liya karte the.sundar.

हरकीरत ' हीर' said...

namaskar
behad sunder ..!!

दिगम्बर नासवा said...

बीते समय के एहसास जगाती है रचना ...