Saturday, October 18, 2014



जनम सिद्ध
 कौतुहल हो कर मैंने पूछा उससे -
तुम्हारे ललाट पर ये ताला क्यूँ ,
और किसने लट काया ?
वो बोला-
हुज़ूर ! ये मेरे ही शरीर का अंग है
हमारा जन्म सिद्ध अधिकार
मेरे पुरखो के भी
मेरे भी
और मेरी सतां के भी है
खोजता हूँ , इस ताले कि चाबी
चिलचिलाती धूप में
तरबतर हो कर
मगर असफल !
जंगदार हो गया ताला
खुलता ही नहीं
बंधुआ मज़दूर कि भांति
बंधा है हमारी किस्मत से
महज तिलक समझ इसे
ढांढस बंधाते है एक दूजे का
शायद , अगले जनम में चाबी साथ मिले
यही सोच , दिहाड़ी पर लग जाता हूँ मैं !
मैं विस्मित हो
उसे जाते देखता रहा
उसने कश लिया बीड़ी का
कड़ाही उठाई और जुट गया अपने कर्म में
कोई क्षोभ नहीं चेहरे पर उसके
मगर मेरे !
सुनील गज्जाणी

No comments: