Friday, December 9, 2011

राजस्थानी कवितावां

तीन नानी नानी कवितावां
(१)
बिंदी
मिनख अर पाना सूं
सांगो पांग सगपन करती !

(२)
रेखावा जीवन अर जीवन रे बारे री
खासम ख़ास व्याकरण !

(३)
इछावां
जीवन अर सागे
विस -अमरित
रमती !

सुनील गज्जाणी

Monday, September 26, 2011

लघु कथाएँ

                                                                                (1)                                                                           
                                                                              नौकरी 


वो जगह जगह  से ज़ख्मी हो कर खूंखार  कुत्तो के बीच से नन्हे पिल्लै को बचा लाया , वहां  एकत्रित हुए लोगो ने उसके पशु प्रेम पे उसे शाबाशी दी , खूब सराहा ! मगर वो अपने ज़ख्मो को भूल सोच रहा था '' अगर पिल्लै को कुछ हो जाता तो मालिक  मुझे नौकरी पे थोड़े ही रखते ,मुझे नौकरी के लिए फिर दर दर भटकना पड़ता !''
सुनील गज्जाणी
                                                                 (2)                         
                                                                                        छः रुपये 

'' महीने का हिसाब किताब बिगड़ गया है चीनी लेने गयी थी दुकानदार बोला , पेंतीस रुपये किलो हो गयी है छः रुपये और दो , मैं वापिस आ गयी ... पैसे और नहीं ले गयी थी मैं .. होते भी कहाँ  से , सब्जी वाले का , आटे वाले का , दूध वाले . गुड्डू कि फीस सभी जोड़ कर देख लिया किसी में से भी छः रुपये नहीं बचता ! हाँ  , वे सभी बोल रहे थे कि हम भी पैसे बढाएंगे , हम लायेंगे कहाँ से ? आप के सेठ  के पास गयी थी छः रुपये लेने , तो बोला '' रुपये छः लो या सौ , ब्याज बराबर लगेगा और बोला कि तुम्हारे पति कि बिमारी के इलाज़ के वास्ते वैसे भी उधार बहुत दे दिया , अगर वो थोड़े थाडे भी ठीक हो गए होतो काम पे भेजो ताकि क़र्ज़ उतरे '' ..... मैं अपना सा मुँह लिए चली आई '' सुनो ! तुम्हारी नौकरी छठे वेतन में नहीं आती क्या ? जहाँ भी  देखो इसी कि चर्चा सुनने को मिलती है , वैसे ये है क्या ? खैर .. अभी मतलब कि बात करू कि मैं ये छः रुपये किस खर्चे में से निकालू बताओ ना ? ''

सुनील गज्जाणी

Friday, August 19, 2011

तीन हाइकु

हाइकू
(१)
खूब बरसे
विरह में सावन
लिए ये नैन !


(२)
बचपन तो
कुम्हार का है चाक
ज्यूं चाहो  घड़ो !


(३)
सींचा है खूब
मेह ने इन सूखे
दरख्तों को तो !
*******
-सुनील गज्जाणी

Tuesday, July 5, 2011

कविताएँ

 

मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ।

  किस नयन तुमको निहारू,

किस कण्ठ तुमको पुकारू,
रोम रोम में तुम्ही हो मेरे,
फिर काहे ना तुम्हे दुलारू,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ।

प्रतिबिम्ब मै या काया तुम,
दोनो मे अन्तर जानू,
हाँ, हो कुछ पंचतत्वो से परे जग में,
फिर मै धरा तुम्हे माटी क्यू ना बतलाऊ,
सुनो! तुम तिलक मै ललाट बन जाऊ,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ।।

बैर-भाव, राग द्वेष करू मै किससे,
मुझ में जीव तुझ में भी है आत्मा बसी,
पोखर पोखर सा क्यूं तू जीए रे जीवन,
जल पानी, जात-पात मे मै भेद ना जांनू,
हो चेतन, तुझे हिमालय, सागर का अर्थ समझाऊ,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ।।।

विलय कौन किसमे हो ये ना जानू,
मेरी भावना तुझ में हो ये मै मानू,
बजाती मधुर बंशी पवन कानो में हमारे,
शान्त हम, हो फैली हर ओर शान्ति चाहूं,
मित्र! तुम्हे मेरे मन की बात बताऊ।।। 
 सुनील गज्जाणी

नज़रें 

जाने कौनसा फलसका ढूंढती
मेरे चेहरे में वो नजरे
जाने कौनसी रूबाई पढती
मेरे तन पे वो नजरे
जाने क्यूं मुझे रूमानी गजल समझते वो
शायद मेरे औरत होने के कारण
जाने कौनसा .............................. नजरे।
नुक्ता और मिसरा दोनो मेरी ऑंखे शायद
लब बहर तय करते
जुल्फे अलफाजो को ढालती
चेहरा एक शेर बनता शायद
मेरे जज्बात उन नजरो से मीलो दूर
पलके बेजान सी हो जाती मेरी
नजरे बींध देती जमीं को मेरी
वो मैली ऑंखे देख
जाने कौनसा .............................. नजरे।।
मै आकाश को छूने निकली थी
मगर घरौंदे तक ही सिमट गई
एक लक्ष्मण रेखा सी खिंच गई
ठिठक गए कदम वो मैली नजरे देख
किसे दोष दूं
किसे दोष दूं, मै ...... औरत का होना
कैसे ना दोष दूं, औरत का ना होना
पल पल मरती मै
कभी काया के भीतर
कभी काया लिए
मरती कभी तन से
कभी मन से
खिरते सपने
गिरते रिश्ते
जाने कौनसा अदब लिए
जाने कौनसा ....................... वो नजरे।।
सुनील गज्जाणी

Saturday, June 18, 2011

दो लघुकथाएँ

  (१) पहचाना नही

‘‘भले ही तुम मेरी पत्‍नी होकर मेरा साथ ना दो, मगर मैं ये मानने को कतई तैयार नहीं हूं कि गजनी फिल्‍म के आमिर खान जैसा किरदार भी कोई इन्‍सान हक़ीकत में होता है क्‍या, कि जिसे याददाश्त सिर्फ पन्‍द्रह मिनट के लिये रहती है.....मैं इस मैगजीन में छपे आर्टिकल की कटु आलोचना करता हूं।''..... ‘‘डॉक्‍टर रिजर्व नेचर की मेरी पत्‍नी जाने कैसे तुमसे इतनी घुल-मिल गई जो इस आर्टिकल को लेकर तुम्‍हारा सपोर्ट कर रही है..... डॉक्‍टर......मुझे हस्‍पताल से छुट्टी कब दे रहे हो, मेरी मेडिकल रिपोर्ट का क्‍या हुआ। हॉँ..मेरी बीमारी तुम्‍हारे पकड़ में आयी है या नहीं या यूंही मुझ पर एक्‍सपेरीमेंट करे जा रहे हो, डॉक्‍टर लोग शायद मरीज को इन्‍सान नहीं जानवर समझकर अपने नित-नए प्रयोग करने की कोशिश करते हैं, हॉँ... तो डॉक्‍टर............।

‘‘क्‍या हुआ चुप क्यूँ हो गए ?'' बौखलाई सी पत्‍नी उसके पास जाती हुई बोली।
‘‘माफ कीजिए, मैने आपको जरा....पहचाना नहीं''
पत्‍नी डबडबाई आँखें लिए अपनी शादी का फोटो फिर से पति को दिखाने लगी।

(२) प्रार्थना

भारत और श्री लंका के बीच दाम्बुला  मे चल रहा ट्वेंटी - २० क्रिकेट मैच रोमांचक स्थिति में था , १२ साल की गुडिया मेरे साथ बैठी मैच देख रही थी हालांकि क्रिकेट का उसे इतना ज्ञान नही था मै टीवी स्क्रीन पे आखें गडाए उत्सुकता मे था ।
‘‘पापा ........ क्या इंडिया जीतेगा ?
‘‘बेटा ! पता नही मगर मैच जबर्दस्त रोमांचक हो रहा हैं भारत के दो विकेट बाकी है और अब अन्तिम चार गेंदो पर दो रन बनाने है

मलिंगा ने गेंद फेकी जहीर खान ने स्ट्रोक    खेला मगर दुर्भाग्य जयसूर्या ने चार कदम तेजी से आगे बढा शानदार केच ले लिया; खचाखच भरे स्टेडियम में खामोश बैठे दर्शको में इस कैच आउट ने जबर्दस्त जोश भर दिया ।
‘‘पापा अब क्या इंडिया जीतेगा ?‘‘
‘‘हो सकता है‘‘
मलिंगा ने तीसरी गेंद फेकी नए बल्लेबाज ईशान्त शर्मा ने हुक किया मगर रन नही बन पाया
अब दो गेंद दो रन............. मेरी धडकने तेज हो रही थी
‘‘पापा सीरियस क्यूं हो गए.......... चाय ठण्डी हो रही है ना ?‘‘
‘‘बेटा हमें जीतने के लिए दो गेदों पे दो रन चाहिए मैच का रिजल्ट कुछ भी हो सकता हैं ।‘‘
‘‘पापा अगर में प्रे करू तो इडियां जीत जाएगा ?‘‘
‘‘मन से की गई प्रार्थना का असर तो होता ह है ‘‘
मेरे जवाब से पहले ह वो प्रार्थना भाव मे बैठ गई तभी स्क्रीन पे पवेलियन का एक दृश्य दिखाया जिसमे एक लडकी भी प्रार्थना भाव मे बैठी थी
मंलिंगा ने सैकिण्ड लास्ट गेंद फेकी ईशान्त शर्मा ने हल्का सा पुश किया और तेजी से दौड कर एक रन बना लिया मैच बराबरी पे आ गया
दर्शको का जोश परवान पे था अब एक गेंद और एक रन बस जीत.............. मलिंगां ने अन्तिम गेद फेकी भज्जी ने बल्ला चलाया मगर गेदं बल्ले को छु नही पायी, मैच टाई हो गया...... मुझे लगा शायद दो प्रार्थनाए आपस मे टकरा गई। 

सुनील गज्जाणी 

Thursday, June 2, 2011

एक शेर

सम्मानिय विद्वजन  ये एक शेर ही  नहीं मेरे जीवन का एक हिस्सा  रहे है ये क्षण  जिस से  मैं  हो कर गुजरा हूँ  जिसे मैं कभी विस्मृत  नहीं सकता !अपने पूज्य पिता जे कि स्मृतियों !
!
ढूंढता वो राख में नहीं कोई सुराग
 
है बीनता  अपने पिता कि अस्थियाँ
 
सोचा के समंदर में इतना बवाल क्यूँ
 
रोया बहुत बाहों में भर वो  अस्थियाँ !
 
सुनील गज्जाणी
 
 

Saturday, May 7, 2011

कविता

{ १}

एक शब्द नहीं बोली
रख लिया पत्थर
ह्रदय पे
वेदना सब कुछ कह गए
शब्द
आँखों से खीर खीर !


{ २ }


नन्ही बूंदें
अब भी अपना अस्तित्व
दर्शा रही है
टीलों के मुहानों पर
मानों, मुख चूम रही हो
तब तक
जब तक पांवों से अछूती रहे !


{३}

ढेरों
पीपल के टूटे पत्ते
पानी पे यू आलिंगंबध
मानो ,
सहला रहे
मलहम लगा रहे हो
तालाब दिन भर
चिलचिलाती धूप में
कितना जला है बेचारा !

Saturday, April 30, 2011

हाईकू

(१)
पिया कंठों से
पिया मांग के तो
पिया तो पिया !

(२)
मानव मानो
फूला हुआ गुब्बारा
दंभ काहे का !

(३)
ठाठ से सोया
बेटी विदा कर वो
गंगा नहाया !

(४)
दीपक बुझे
रे मानव तन के
ये दिवाली है !

(५)
फिजाएं गूंजी
किलकारियाँ नहीं
कैसी  दिवाली ?

(६)
माँ कि दिवाली
देख सुखी कोख के
दरबार  से !

(७)
चुल्हा मौन है
आरक्षण युद्ध में
कैसा ये फाड़ ?

(८)
ठण्ड जोरो पे
नेता तापते हाथ
जलता देश !

(९)
प्रदूषण तो
घोटाले ही घोटाले
तौबा रे  तौबा !

(१०)
आईना देखा
स्वयं को मैंने नहीं
मुद्दे ही दिखे !
***
सुनील गज्जाणी

Saturday, April 23, 2011

पूज्य पिताजी को शत-शत नमन

       मेरे पूज्य पिताजी को ब्रह्मलीन हुए आज पूरा एक माह हो गया. २३ मार्च २०११ को पूरे एक माह अपनी बीमारी से जूझते हुए सुबह ७:३० बजे चिर निंद्रा में सो गए. हम सब निकट ही बैठे थे. हमें आभास ही नहीं हुआ इस अनहोनी पर. मृत्यु कैसे दबे पाँव आती है ये सिर्फ सूना था, देख भी लिया.
        मेरे पिता का नाम तो 'मोतीलाल' था मगर अपने यार दोस्तों में वे 'बाबूजी' और महाराज नाम से अधिक जाने जाते थे. मैं उनसे इतना डरता था की उनके पास खड़ा होना तो दूर, आँखें तक मिलाने की हिम्मत नहीं कर पाटा था. जबकि २५ दिसंबर, २००७ को पहली बार वे बीमार पड़े तब से लेकर अंतिम पलों तक इतना साथ रहा जो मेरे लिए सदा अविस्मरनीय रहेगा.
       मेहनत और लगन में उनका कोई शानी नहीं था. जो ठान लिया तो बस ठान लिया और कर ही लिया. जुबां के पक्के. सही को सही और गलत को गलत, चाहे सम्मुख कोई भी व्यक्ति हो.  उनकी इसी खासियत के सब कायल थे. भूली-बिसरी बातें, अनछुए पहलू बहुत हैं. उनके साथ शायद अंतिम सालों में निकट बैठकर भरपाई करने का प्रयास किया.
        पिता- जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता. उनके बताये मार्ग पर अनुसरण किया जा सकता है. अवस्था ७५ वर्ष की कोई यूं जाने की भी नहीं होती मगर विधि के विधान को कौन ताल सकता है. हमें आज भी विश्वास नहीं होता की २२ मार्च तक हम उन्हें एक नन्हे बच्चे की तरह सहेज कर, देखभाल करते रहे. उनके हर आवश्यक काम के लिए वे बच्चे ही बन गए...आत्मिल सुकून भी है की हमने पूरी श्रद्धा से उनकी सेवा की..खैर....
       आज पुनः वही एक माह पुराना दिन याद आया और पलकें नम कर गया. २३ मार्च, २०११  की ये तारीख समय के साथ अतीत होती रहेगी मगर उनका आभास, उनकी यादें हमारी धडकनों की लय से लय मिलाती सदा स्मृतियों में गूंजती रहेगी. जब भी जीवन में कहीं कोई परेशानी या मुसीबत आयेगी तो पिताजी स्मृतियों से निकल मेरी उंगली पकड़ कर अपने आभास में मुझे सही राह पर लाकर ठोकरों से बचाते रहेंगे. . 
       आज मैंने अपना ब्लॉग 'अक्षय मोती' आरम्भ किया है जो पूज्य पिता जी की स्मृति में उन्ही को समर्पित करता हूँ. चाहता हूँ  कि आप भी दुवा कीजिये कि उनको मोक्ष मिले और मुझे आप सभी का स्नेहिल आशीर्वाद. 
पूज्य पिताजी को शत-शत नमन ! ॐ शांतिः शांतिः शांतिः !