Monday, March 5, 2012

होली- सुनील गज्जाणी की नज़र से

१.
संदेशा
होली आगमन का
वे दरख्त
अपने पत्तों को
स्वयम् से जुदा कर
हर बार देते हैं।

२.
नंग-धडंग
हो जाते वे दरख्त
नागाबाबा साधू की मानिन्द
मानो, तप कर रहे हैं।
या
होलिका का ध्यान भंग
मैं बचपन से
सुनता आया हूं
पढता रहा हूं
कि होलिका शत्रु
प्रह्लाद की भक्ति और
जनता का अश्लील कटाक्ष रहे
शायद
इसी परम्परा को निभाते दरख्त
या
बाहें फैलाए रंग-उत्सव का
स्वागत करते

३.
रंग
तीनों गुणों से परे कितना
रंग
मन से मेल नहीं
चरित्र से मेल नहीं
तभी
निखरता है।

४.
भीगा रोम-रोम
बरसी कुछ
नयन बून्दों से

हुए नयन रक्तिम
मुख गुलाल वर्ण
श्याम नयन
जल में डूबे
ये भी कैसी होली है।
भीग रही
पिया याद में
उड-उड आती
अबीर-गुलाल
ज्यूं-ज्यूं मेरा
तन छुए
हंसी-ठिठोली
मसखरी बातें
त्यूं-त्यूं उनकी
याद दिलाए
नयन बांध
है लबालब

भीतर मन रहा सुलग
तन गीला बाहर
भीतर मन सूखा
मचा दुडदंग हर ओर
छैल-छबीला माहौल
गूँजे होली है, होली है
की आवाजें
पर डूबा तन-मन
श्याम वर्ण में
पडा फीका मुख का वर्ण
अधरों में दिखे
पडी बिवाईयाँ
सूखा मन
गीला हो के भी तन
ये भी कैसी होली है।
***
-सुनील गज्जाणी