Thursday, December 19, 2013

 (दूसरी क़िस्त )
 नाटक    ''' किनारे से परे '''
दृश्य दो
(अन्धकार में सिर्फ आवाज) मेरा जीवन उस समय शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह खिल रहा था, उमंगे नादान हिरणी की तरह गुलाचे भर रही थी, भूल गई थी कि पूर्णिमा के बाद अमावस्या ही आती है और अधिक उछल-कूद पर गिरने का ही डर रहता है......... (प्रकाश)
आशू - खामोश क्यूं हो, ताज्जुब हुआ ?
आशा- सोच रही हूं कि अच्छा होता हमारा रिश्ता यूं ही चलता रहता।
आशू - भला कब तक ?
आशा- जब तक हमारी शादी की बात तय नहीं हो जाती।
आशू - बेवकूफ हो, प्यार मे दहलीज लांघना इतना आसान नहीं है।
आशा- क्यूं ? इसलिए कि मैं एक हिन्दू और तुम मुस्लमान हों।
आशू- आशा, ऐसी बात नहीं है धर्म तो क्या किसी विपरीत समाज को भी प्यार में लांघना इतना सरल नहीं होता।
आशा- तो यूं क्यूं नहीं कहते कि डरते हो तुम।
आशू - ओफ्फो ! (झुंझलाहट)......... आशा, तुम समझने की कोशिश करो, हम कोई शख्सियत नहीं है जो लोग हमे पलको पे बिठा लेंगे, फासले भी कितने है हमारे बीच......... मेरे एक दिन की कमाई शायद तुम्हारे एक दिन के खर्चे के बराबर होगी और तुम्हारी इतनी पढाई मेरे लिए सपने समान है......... तुम मेरे जज्बात समझ रही होगी, और तो और तुम मेरे परिवार को भी नहीं जानती हो, हम दोस्त ही अच्छे रहेगे।
आशा- बडे-बुजुर्ग कहते है कि जोडयां विधाता ही बनाता है, फिर बन्धन सीमाऐं क्या चीज है,
- मगर ये देन भी तो उन्हीं की ही है।
आशा- और विधाता की देन......... भूल गए, जाने कितनी भीड थी उस ट्रेन में जब बडौदा में बाढ के पानी में ट्रेन फंस गई थी तुम भी सफर कर रहे थे ’यह इत्तेफाक ही था कि इण्टरयूनिवर्सिटी डांस कम्पीटीशन मे सहेलियो की जबरदस्ती से मुझे भाग लेने जाना पडा।
आशू - और डांस ग्रुप में तुम सैकिण्ड भी आयी।
आशा- वो मेरे जीवन का अहम मोड था।
आशू - मालूम है, बाढ का पानी लगतार बढ रहा था, अगले पल क्या होगा पता नहीं........ जाहिर है, तीन-चार दिन में खाने की चीजें भी खत्म हो गई थी, अब क्या खाऐं तुम्हारी टीम को समझ नहीं आ रहा था।
आशा- हम सब मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि है भगवान तू अपना कोई दूत तो भेज........।
पेट में चूहे जो कूद रहे थे। भगवान ने सुनी भी, उसी डिब्बे में तुम सफर कर रहे थे, वो भी फास्ट फूड के पैकेटों के साथ।
आशू - क्या करते, नौकरी भी तो नमकीन एजेन्सी मे थी, प्रॉडक्ट की मार्केटिंग करने मुम्बई ही जा रहा था।
आशा- और चहलकदमी.........।
आशू - यूं ही उपन्यास पढते पढते उब गया था सो डिब्बे में यूं ही चहलकदमी करने लगा और पांव भी ठिठके तो तुम्हारे केबिन के सामने ही नजरें तुम्हारे चेहरे पे जमे बिना नहीं रही मानो कुछ कह रही हो।
आशा- सही समझा था उस समय यही लग रहा था कि काश किसी के पास कुछ खाने को एक्सट्रा हो।
आशू- आखिरकार तुम्हारी मैडम हिम्मत करके पूछ ही बैठी कि ’’खाने की ट्रेन में व्यवस्था हो सकती है भैया ?‘‘
आशा- और आखिरकार जनाब के पास जो सैंपल का बडा पैकेट था लेकर ही आए।
आशू- सिर मुडाते ही जैसे ओले पडे, झपट पडी थी तुम्हारी सहेलियां मानो मुद्दत बाद खाने को मिला हो।
आशा- हालात ही कुछ ऐसे बन गए थे क्या करते।
आशू- मगर मेरे लिए दो ताज्जुब की बातें थी।
आशा- कौन कौन सी ?
आशू- पहली तो ये कि क्या पानी का हौज साथ ले गई थी जो पीती रही तीन चार दिन।
आशा- वो......... वो मगर थोडा थोडा ही टॉयलेट के पास जो वॉशबेसिन है ना.........।
आशू- (बीच में ही) छी ! कितने गन्दे हाथ लगते है उस पे तो अरे बाप रे बाप।
आशा- आशू, प्लीज कुछ मत बोला, अब घिन्न सी आती है उस पल को याद कर।
आशू- कोई बात नहीं मैं किसी से यह नहीं कहूंगा, दरअसल मुझे ये बात तब दिमाग में आई जब मेरी पानी की बोतल खत्म हो गई थी और मैं उसी से.........।
आशा- (खिलखिलाती) मिस्टर, आईने के सामने खुद को कभी छिपाया नहीं जा सकता। (दोनों हंसते हैं) कहीं दूसरा ताज्जुब भी कहीं ऐसा ही तो नहीं है।
आशू- ऐसा तो नहीं लेकिन मुझे बिना जाने पहचाने ही पैकेट ले लिया और खाने पे टूट पडी अगर उसमें कुछ मिला होता तो.........।
आशा- मिस्टर ! भूल रहे हो तुम, अपने परिचय में तुमने यह नहीं था कि मैं तुम्हारे ही शहर का रहने वाला हूं और रेजिडेन्स उस जगह बताया जिसे पूरी तरह जानती हूं।
आशू- क्या इतना काफी था ?
आशा- इंसानियत और विश्वास अभी तक जिन्दा है।
आशू- सज्दा करता हूं ऐसे नेक दिलों में। एक बात और पूंछूं।
आशा- रोका है।
आशू- फिर भी, तुम रह रह कर तुम मेरी ओर क्यूं देख रही थी ?
आशा- क्यूं अपनी नहीं कहोगे।
आशू- जाने क्यूं तुम्हारी ग्रुप की लडकियों में से नजरें बरक्स तुम्हे ही देखना क्यूं चाहती थी।
आशा- यही अगर मैं कहूं तो।
आशू- तभी बाकी टीम मुझे आशू भैया आशू भैया कह कर पुकारती थी बस तुम्हीं थी जो मुझे नहीं पुकारती थी।
आशा- बिना कहे ही तुम मेरा काम कर देते तो मैं क्यूं पुकारती भला।
आशू- ये बात भी सही है
आशा- मेरे जहन मे अभी भी वो पूरी बातें फिल्म की तरह चल रही थी।
आशू- हां मेरे भी.........इस बीच हमारी दोस्ती भी हो गई......... मुम्बई तक साथ रहा बेवजह जानती ही हो......... क्योंकी वहां जाने का उद्देश्य तो तुम लोग चट कर चुकी थी........ खैर बाद मैं नौकरी से भी हाथ धोना पडा।
आशा- क्या तुम इसे संयग नहीं मानते कि विधाता ने ही हमे मिलाने के लिए यह खेल रचाया था।
आशू- इससे मना ही नहीं करता मैं देखो ना यह संयोग है मैने सिर्फ तुम्हें आशा से ज्यादा कुछ नहीं ताना
आशा- मैने भी नहीं जाना आशू आशुतोष है या अशरफ।
आशू- चाहत थी तुम्हारी मेरे मन में मगर एक डर जरूर था......... और है भी।
आशा- कैसा डर ?
आशू- अपने परिवार से समाज से बेहद एक जरूरी मेरी मां, मानेंगे नही हमार प्यार को।
आशू- मगर मैं अपने परिवार, समाज से वाकिफ था......... बेहद कट्टर है......... रूढिवादी है, मानेंगे नहीं हमारे प्यार को जबकि मेरी मां के जहन में तो अभी तक दहशत बैठी हुई है सन् ९४ के दंगों की, जिसमें उन्होने अपने मासूम भाई को खोया था, चिढती है, किसी भी हिन्दू से।
आशा- और यही बात किसी हिन्दू मां की हो तो.........।
आशू- मैं समझ रहा हूं तुम्हारे जज्बात को।
आशा- समझ ही कहां रहे हो, मेरे ख्यालो में सिर्फ तुम ही बसे हुए हो।
आशू- घूम फिर कर तुम इसी बात पे क्यूं आ जाती हो।
आशा- तो क्या करूं......... मेरे घर वाले मेरी सगाई उससे कर रहे है जिसे ना मैने देखा है और ना जानती हूं।
आशू- तुम्हारे घरवालों से बेहतर तो तुम उसे फिलहाल पूरी तरह जान नही सकती और मां-बाप कभी अपनी बेटी का बुरा नही चाहते।
आशा- बात चाहने की तो है ना।
आशू- चाहत बाद में भी तो पैदा हो सकती है ना।
आशा- अगर यही मैं तुमसे कहूं तो।
आशू- उफ ! कोल्हू का बेल......... (स्थिर)
(आवाज) अन्ततः हमारी बहस सार्थक सिद्ध हुई मैं जीत गई......... आशू ने शादी करना कबूल कर लिया एक परिवार की आशा इस्लामिक बन गई......... आशा अस्मां बन गई निकाह करके।

Tuesday, December 3, 2013

नाटक '' किनारे से परे।

नमस्कार ! आज मैं आप के समक्ष अपना नाटक '' किनारे से परे।  ' रख रहा हूँ।  किस्तो में ! ये नाटक लघु नाटक प्रतियोगिता में प्रथम रहा था ! आप कि क्या प्रतिक्रया है , ये प्रतीक्षा रहेगी !
सादर

किनारे से परे...                                   |  


                                     दृश्य एक          ( प्रथम पर्व )
(मंच पे एक कमरे का दृश्य, धीमी आवाज में गजल बज रही है ’कमरा सुसज्जित एवं दीवारों पे कलात्मक चित्र पोट्रेट टंगे है। कमरे मे हल्की-हल्की रोशनी फैली है। दीवान पे एक वृद्ध महिला लेटी है.........(दरवाजे पे दस्तक)
’’दरवाजा ही तो है......... आ जाओ’’ (मंच पे एक युवती का प्रवेश) ’’रचना! कैसे आई तू.......दरवाजा काहे को खटखटा रही थी ?’’

रचना - दरअसल...... अस्मां बी...
अस्मां बी- तुझे कितनी बार कहा है कि तू सीधी चली आया कर, क्या बेटियों को भी अपने घर मे घुसने के लिए किसी दस्तक की जरूरत है भला।
रचना- ऐसी बात नहीं है अस्मां बी, इस समय आप आराम फरमां रही होती है ना इसलिए सोचा कि.........।
अस्मां बी- तू सोचती बहुत है और हर वक्त गुमसुम मत रहा कर। सब ठीक हो जाएगा री, आ अब बैठेगी भी या यूं ही .........।
रचना- (बात काटते हुए) दरअसल मैं इसलिए आई थी कि आपसे कोई मिलना चाहती है, हालांकि मैने उसे बहुत मना किया कि आप इस समय थोडा आराम फरमांती है, लेकिन मानी नहीं, कहा कि आपने ही उसे बुलाया है।
अस्मां बी- (बैठती) हां-हां शायद वो ही होगी, जब उसका फोन आया तो मैने उसे कहा था कि जब तुम्हें समय हो आ जाना......... मगर समय......... खैर कोई बात नहीं जाने क्यूं मिलना चाहती है.........।
रचना- हां, एक लडकी ही है, क्या उसे ड्राईंग रूम में बिठाऊं ?
अस्मां बी- नहीं री, यहीं ले आना......... मुएं बूढे घुटनों को क्यूं और तकलीफ दूं, यूं ही ये तो दर्द मे घुटे घुटे से जा रहें है‘
रचना- जैसा आप कहे, अस्मां बी। (जाती हुई)
अस्मां बी- बुढापे में कोई रोग भी किसी अभिशाप से कम नहीं होता (बुदबुदाना)
(रचना एक युवती को साथ लाती है, युवती के कन्धे पे पर्स टंगा है व हाथ में एक डायरी है)
रचना- अस्मां बी ये.........।
अस्मां बी- (बात काटती) क्या नाम बताया था तुमने।
सुमन- जी, सुमन (प्रणाम करती)
अस्मां बी- हूं......... याद आया वो ही लडकी जो बार-बार फोन करती थी (सुमन मुस्कुराती) वाकई सुमन ही हो, बैठो ना (सुमन कुर्सी पर बैठ जाती है)
अस्मां बी- रचना.........।
रचना- अस्मां बी, क्या लाऊं ?
सुमन- अस्मां बी, अगर आप मेरे लिए कुछ मंगा रही है तो फिलहाल सिर्फ ठण्डा पानी।
अस्मां बी- उसके बाद दो चाय, क्यूं ठीक है ना सुमन।
सुमन- नो प्रोबलम।
रचना- (प्रस्थान करती) जी, अभी लायी।
अस्मां बी- टेप भी बंद कर देना जरा।
सुमन- क्यूं मेरा आना अच्छा नहीं लगा आपको ?
अस्मां बी- ऐसा क्यूं पूछा री।
सुमन- आप टेप जो बन्द करा रही है।
अस्मां बी- (हंसती) दिमाग वाली हो, ये संगीत, ये गजल मेरे मन को टटोलती है, बडा सुकून मिलता है।
सुमन- (चित्रों को देखती) और ये पोट्रेट.........।
अस्मां बी- कस्से कहते हैं।
सुमन- किसके ?
अस्मां बी- किसके भला........ जो कैनवास पे दिखते हैं।
सुमन- और जो कस्से बिना कैनवास के हो तो ?
अस्मां बी- ये भला कैसा सवाल है।
सुमन- नहीं अस्मां बी.. सवाल नहीं, कुछ कस्से समय के कैनवास पे होते है।
अस्मां बी- (रोष) होते होंगे, मुझे कोई सरोकार नहीं।
सुमन- अगर होतो ?
अस्मां बी- (पूर्वभाव) लडकी! मतलब क्या है तुम्हारा ?
सुमन- जिनसे आप बचना चाह रही है।
अस्मां बी- (मौन) सही कह रही हो, अगर बच जाती तो बिना कैनवास के कस्से कैसे बनते।
सुमन- मेरा यह मतलब नहीं था कि आपका दिल दुखाऊं।
अस्मां बी- तो अब सहलाना भी मुमकिन नहीं है, कहते है ना वीराने में हवाऐं अपने झोके के साथ लायी रेत की एक-एक परत से टीले बना देती है।
सुमन- मैं समझी नह।
अस्मां बी- तुझे काहे को समझना है री, बता क्या काम था मेरे से।
(तभी रचना ट्रे में दो गिलास पानी का लाती है और दोनों को एक-एक थमा देती है) अस्मां बी- जग ही ले आती.........।
सुमन- सही है, गला सूखा जा रहा था, बडी प्यास लगी है शुक्रिया (पानी पीती)
अस्मां बी- क्यूं कोई प्रतिज्ञा कर रखी थी क्या, कि अपने सूखे गले को यहीं आकर तर करोगी। (पानी पीती)
सुमन- अच्छा मजाक कर लेती हैं, मगर ऐसा ही मान लीजिए, आपसे मिलने के लिए कितने फोन करने पडे मुझे (गिलास रखती)
(रचना मुस्कुरा कर ’’जी, जग अभी लायी!’’ कह कर चली जाती है)
अस्मां बी- अपने धुन की पक्की हो, कुछ मेरी ही तरह......... लेकिन मेरे प्रति इतनी दीवानगी, एक बदनाम औरत के प्रति।
सुमन- दुनियां की नजरों मे एक ही पहलू है ये......... मगर दूसरा पहलू नहीं जानती.........।
अस्मां बी- कौनसा ?
सुमन- आशा का।
अस्मां बी- (चौकती) आशा का......... क्या ?
सुमन- इसी प्रश्न का तो उत्तर जानने आई हूं।
अस्मां बी- भला किस हक से.........।
सुमन- एक नारी के।
अस्मां बी- नारी के (हंसी)......... बेगम सुल्ताना की तरह (आक्रोश)
सुमन- (विस्मय) बेगम सुल्ताना की तरह.........? प्लीज, पहेली मत बताईए ना।
अस्मां बी- कभी-कभी मैं यह सोच कर सिहर उठती हूं कि मैं भी कही पहेली ना बन जाऊं मरने के बाद कि दुनिया मुझे मुस्लमान समझेगी या हिन्दू ? उस समय मेरा ही अक्स कहकहा लगाकर मेरा मखौल उडाने लगता है, मरने के बाद मुझे किसी की बहन, बेटी के रूप में याद करेंगे या.........(रूआंसा)
सुमन- या.........
अस्मां बी- (भर्राना) वेश्या अस्मां को.........।
(तभी रचना पानी का जग लेकर प्रवेश करती है कि अस्मां को रोता देख फुर्ती से टेबल पे जग रख उसके पास आती बोली.........)
रचना- अस्मां बी! ये क्या.. डॉक्टर ने मना किया है ना, अगर रोयी तो आंखे खराब हो सकती है, क्या हुआ अस्मां बी ?
अस्मां बी- अगर दिल का दर्द आंसूओं के रूप में बाहर निकलना चाहे तो नासूर के ऑपरेशन को क्या परेशानी होगी।
रचना- फालतू बात नहीं, मुझे बस इतना सुनना है कि आप फिर नहीं रोएगी अगर रोयी तो.........
अस्मां बी- (बात काटती) गुस्सा मत हो री......... इतना प्यार न जताया कर मुझ परं
रचना- पहले आप ही ने जताया था, अब भुगतना तो पडेगा ही ना।
अस्मां बी- ये बात है (हंसी)
रचना- हूं, ये बात है (दोनो हंस पडती है)
सुमन- अस्मां बी......... आप (रचना की ओर इशारा)
अस्मां बी- संवेदना की संतान।
सुमन- कैसे ?
अस्मां बी- कुदरत ने मुझे कोख से मां बनने का मौका नहीं दिया, शायद इसीलिए रचना बेटी बन कर मेरे जीवन में आ गई।
सुमन- कैसे ?
अस्मां बी- क्या जख्म करना चाहती हो ?
सुमन- नहीं जख्मों की वजह जानना चाहती हूं
अस्मां बी- नारी होने की वजह से (हंसती)
सुमन- अगर समझो तो, नहीं तो.........।
अस्मां बी- नहीं तो, क्या ?
सुमन- ओफ्फो ! मेरी बात तो पूरी सुनिए, आप तो फिजूल मे ही......... दरअसल मैं सामाजिक-सांस्कृतिक विषयो पे लिखने वानी एकस्वतन्त्रा पत्राकार हूं।
अस्मां बी- (चौंकती) तो क्या फोन पर जो कहती थी वो.........।
सुमन- (बात काटती) वो भी सच है कि मैं एक समाज सेविका भी हूं।
अस्मां बी- तो आधा सच था ना।
सुमन- मजबूरी थी, अगर पूरा सच कहती तो यूं ही फोन करती रहती
अस्मां बी- होशियार पत्रकार हो (ताली बजाती) शाबास......... क्या छापना चाहती हो हमारे बारे में, भला वेश्या की जिन्दगी मे बिस्तर ही कहीं पीछा नहीं छोडता मानो उनकी जिन्दगी मे इसके अलावा और कुछ भी ना हो, मजबूरी की ओर कोई झांकता नहीं है कोई चाह कर इसमे नहीं आना चाहता मानो इस धन्धे में उसे अपना कैरियर बनाना हो।
रचना- अस्मां बी ! बस रहने दीजिए ना, आपका ब्लड प्रेशर बढ जाएगा।
अस्मां बी- कुछ नहीं होगी री मुझे, तेरी हसरते पूरी करने के बाद ही मैं.........।
रचना- (मुंह में हाथ रखती) बी, ऐसा मत बोलिए, उस हसरतों के फ्लैट में आपको भी रहना हैं
अस्मां बी- बडी भोली है मेरी बच्ची......... चल, कुछ खाने को लाएगी हमारी मेहमान के लिए।
रचना- क्यूं नहीं (प्रस्थान)
सुमन- बेहद चाहती है आपको......... आपने रचना का खुलासा नहीं किया।
अस्मां बी- इत्तेफाक ही था उस दिन की वो न्यूज गौर से पढ ली, वरना रचना शायद जाने कहां अपनी हसरते बिखेर रही होती......... हसरते भी क्या गुल खिलाती है, खैर, छोडों इन बातों को, तुम बताओ किस मतलब से यहां आई हो ?
सुमन- एक उद्धेश्य के लिए।
अस्मां बी- कौन से ?
सुमन- कि अस्मां बी कौन है ?
अस्मां बी- क्या! क्या कहा... कि अस्मां बी कौन है ? क्या चिल्ला-चिल्ला कर बताऊं कि मैं एक वेश्या थी।
सुमन- और उससे पहले।
अस्मां बी- क्या तुम पत्राकारों का काम गडे मुर्दे उखाडना ही है।
सुमन- नहीं, हकीकत बयां करना भी। अस्मां बी ! मैं वो दास्तां जानना चाहती हूं जो आशा से आस्मां बी तक का है, दबे-दबे से अब तक कई बार आफ किस्से सुने हैं मगर मैं अपने कॉलम ’ट्रू स्टोरी‘ के लिए हमेशा उन किस्सों के सटीक तथ्यों को जानकर उन्हें अपनी कलम से जीवन्त करती हूं भले ही उसमें मुझे कितनी ही परेशानियों का सामना करना पडे।
अस्मां बी- धुन की पक्की हो।
सुमन- हंड्रेड परसेन्ट।
अस्मां बी- मेरी ही तरह......... कहते है कि कोई भी काम सच्ची लगन से किया गया हो तो उसे सफलता अवश्य मिलती है, मगर मुझ सी सफलता किसी को भी ना मिले जो मां पिताजी, भाई-बहन के रिश्तों को छोडना पडे, नया रिश्ता भी नही बन सका......... जिन्दगी कहां से कहां ले आयी मुझे एक अन्धी चाहत में (हंसी)......... देखो ना फिर मैं बहक गई... क्या ले बैठी मैं भी, तुम खूब तरक्की करो, नाम रोशन करो।
सुमन- आशीर्वाद दो ना फिर (अपने पर्स से छोटा टेप रिकॉर्ड निकाल रिकॉर्डिंग के लिए टेबल पर रख देती है)
अस्मां बी- ’’गुजर चके हसीं लम्हें,
छोड चुके अब वो मुकाम,
गूंजती सन्नाटे में सदाएँ,
देते खण्डहर कुछ पैगाम,
(प्रकाश धीरे-धीरे मद्धिम)

Monday, November 25, 2013

चुनावी हाइकू

 
 
चुनावी हाइकू
(1 )
देश प्रेम कि डोर
बाते हुई चुनावी
मुद्दे , हे ! राम !

(2 )
एक दूजे की
बस टांग खिचाई
ये , राजनीति ?
(3 )
वोट का तो ये
हक़ है मानव को
सही उम्र पे !

(4 )
मतदान की
है एक भाषा , देखो
सुनो , हो विचार !

(5 )
शक्ति वोट की
आजमा के तो देखो
गर्व करोगे !
सुनील गज्जाणी

Monday, August 26, 2013

लघु कथा

लघु कथा
                                            ब्रेकिंग न्यूज़
लेह में बादल फटने से ज़बर्दस्त तबाही , हर तरफ तबाही का मंजर , इस प्राकर्तिक हादसे में कितना नुकसान हुआ , फिलहाल कहना मुश्किल है ! मगर हर और दिल देहला देने वाले मंज़र है , कही मिट्टी में लाशें दबी पड़ी है , कही टूटे घर , बड़ी बड़ी गाड़ियाँ जल समाधि ले चुकी है यानी हर और खौफ ही खौफ ! लोग खौफज़दा है ! यहाँ किसी भी तरह से समपर्क का साधन कट चुका है , ना लाइट है और ना ही पीने का  पानी लोगो के पास ! प्रशासन और फौज अपनी पूरी तत्परता से अपने राहत कार्यों  को अंजाम दे रहे है .  किसी ने भी अचानक आये आपदा के बारे में सोचा ही नहीं होगा मगर कुदरत किसी को भी नहीं  बख्शता और जो प्राकर्तिक आपदाए आती है उसका ज़िम्मेदार भी तो इंसान ही है जिस का परिणाम  भुगतना तो पडेगा ही ! यहाँ हम जो दृश्य दिखा रहे है वो ……।
एक चैनल का रिपोर्टर हर दृश्य इस तबाही का दिखाता हुआ अपनी रपट कहा रहा था !
कश्मीर में एक घर बड़ी उत्सुकता से टी वी पर ये सब देख रहा था ! सभी के चेहरे शांत ,परिवार की कुछ सदस्यों की नम  आँखे थी तो कोई अपनी  इबादत कर रहा था ! घर में एक दम ख़ामोशी पसरी पड़ी थी मगर टी वी ये मंजर देख वे सिहर उठे !
'' हमे अभी अभी एक सूचना मिली है जिसमे मरने वालो में कुछ की शिनाख्त हुई है जिन के नाम हम टी वी स्क्रीन पे दिखा रहे है …… !'' रिपोर्टर बोला !
'' खुदा खैर करे  हमारे जान पहचान वाला कोई ना हो इसमें !'' उस  परिवार की एक महिला बुदबुदायी
रिपोर्टर की ये बात सुन। ,पूरा परिवार अपना  खौफज़दा चेहरा लिए अपनी नज़रों को टी वी पे दोबारा  गाड ली , मृतको का नाम सुनने के लिए की कही इस हादसे में अपना कोई ना हो , नमाज़ पड़ती महिला बरबस रुक गयी सभी सदस्य एक दूसरे का मुँह  ताकने लगे ! सभी टकटकी लगाये बैठ गए ।  घर में एक दम सन्नाटा , सभी की धड़कने बढ़ने लगी , साँसे मानो थम सी गयी उनकी। सभी के होठ बुदबुदाने लगे अपनी इबादत में की कोई उनके लिए कोई अपशगुनी न्यूज़ ना हो !तभी रिपोर्टर बोला - पहले एक छोटा सा ब्रेक। .! ये सुन मानो सभी की साँसे जम सी गयी !
 सुनील गज्जाणी

Tuesday, June 18, 2013

लघुकथाएँ

                                    सुनील गज्जाणी की दो लघुकथाएँ

                        arts1 

 

                                     नई कास्‍टयूम

सभागार में मौजूद भीड़ में बेहद उत्‍सुकता थी। भीड़ मे चर्चा का विषय था चर्चित फैशन डिजाइनर की आज नई फीमेल कास्‍टयूम का प्रर्दशन होना। हाई सोसायटी वाली महिलाए अपने बदन दिखाऊ भड़कीले कपड़े पहने ज्‍यादा उत्‍साहित थी। कुछ समय पश्चात् डिजाइनर अपनी नई कास्‍टयूम डिजाईन पहने महिला मॉडल के साथ कैटवॉक करते मंच पे आ गया। पूरा सभागार भौचक्‍का रह गया तालियाँ आघी अधूरी बज कर रह गई। कैमरों की फ्‍लैशें एक बार थम सी गई। सभागार में कानाफूसियां गूंजने लगी। ये क्‍या नई कास्‍टयूम है, ऐसी क्‍या हमारी सोसायटी में पहनते है, क्‍या बुद्धि सठिया गई। पब पार्टियों में क्‍या ये कास्‍टयूम पहन कर जाएगे हम लोग। वे महिलाएं आपस मे बड़बड़ाती हुर्ह सभागार से बाहर निकलने लगी। पारम्‍परिक कॉस्‍ट्‌यूम चुन्‍नी से माथा ढंका सलवार सूट पहने नजरें नीची किए मॉडल के साथ डिजाईनर अभिवादन मुद्रा में खड़ा था।
 सुनील गज्जाणी

                                चुनाव

गृहमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में एक कुख्‍यात अपराधी गुट और पुलिस दल के बीच जबरदस्‍त गोलीबारी हुई। इस गोली बारी मे गुट के कुछ साथियों के साथ सरगना व कुछ पुलिस वाले भी मारे गए। टी.वी. पे खबर देख गृहमन्‍त्री बेहद व्‍यथित हो गए खाना बीच में छोड़ दिया।
‘‘क्‍या हुआ अचानक आपको, जो निवाला भी छोड़ दिया। राज्‍य मे आज से पहले भी ऐसी कई बार घटना हुई है, जिसे कभी आपने इतने मन से नही लिया।'' पत्‍नी बोली।
‘‘ऐसी घटना भी तो मेरे साथ पहली बार हुई है।''
‘‘मैं समझी नहीं।''
‘‘जो सरगना मरा है, उसी के दम पे तो मैं चुनाव जीतता आया हूँ।'' गृहमन्‍त्री जी हाथ धोते बोले।

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सुनील गज्जाणी


Thursday, May 23, 2013

लघु कथा

   लघु कथा                                   (भूख  )
मंगला भिखारी दर्द से  करहा रहे कालू कुत्ते के पाँव को सहलाता हुआ बोलो '' बेचारे भूखे को रोटी की बजाय लट्ठ खिला दिया , जानवरों की तो कोई कद्र ही नहीं करता !''
'' जब से आटे के भाव बदे है , लोगो ने रोटिया देनी कम कर दी है कहते है की अब रोटिया गिन कर बनाते है , हमारी भी दो चार रोटिया गिन ले तो पहाड़ थोड़े ही टूट पडेगा उन पे , बेचारे कालू  को जोर से लगी है !'' उसकी पत्नी रुकमा बोली !
''कालू  भूख में भूल गया था की ये उस सेठ के बंगले के सामने खड़ा कूकने लगा जहा चौकीदार लट्ठ लिए  खडा रहता है !'' मंगला बोल !
'' इसमें इस का क्या दोष . जब सेठ के नौकर सेठ के पालतू कुत्ते को बिस्किट खिला रहा था तो इस के मुझ में भी पानी आ गया होगा . सोचा होगा की जब इसे बिस्किट खिला रहा है तो मुझ भी खिलाएगा , मैं भी तो कुता हूँ !''  रुकमा ने उतर  दिया !
'' दोनों कुतों की किस्मत में भी फर्क है,.... गरमा गर्म बन रही घरो में रोटियों की महक से मेरी भूख भी भड़क रही है !''
'' मेरे कटोरे में सूखी रोटी है !''
'' पगली ! मुह में दांत होते तो ये भी खा लेता !''
'' मैं कही से मांग कर लाती हूँ !''
रुकमा चल देती है , मगला दर्द से करहा रहे कालू कुत्ते को पुचकारने लगता है . रोटियों की महक मगला के मुह में रह रह पानी भर रही थी ! कुछ समय बाद रुकमा लंगडाती हुई आई !
''क्या हुआ '' चौकता हुआ मंगला बोला !
'' थोड़ी दूरी पे नया घर बना है इस उपलक्ष्य में वहा  खाने का कार्यक्रम चल रहा था, खान की महक बहुत अच्छी आ रही थी शायद  पकवान भी थे ,महक से लग रहा था मैं मन ही मन खुश हो रही थी की आज हमे मिठाई भी खाने को मिलेगी , मैं ये  खयाली पुलाव लिए उस घर के दरवाज़े के पास जा कर खड़ी हो गयी तभी उस घर की कोई महिला सदस्या आई उसे देख मैं बोली - ;; माई ! कुछ खाने को दो ना मेरे पति भूखे है !''
''बाह्मण भोजन से पहले किसी को कुछ नहीं मिलेगा और हां , भिखारियों को तो पूरा खाने का कार्यक्रम सलटने के बाद ही!'' वो झिदकती सी बोली !
'' आप लोग ही तो कहते  है की मेहमान भगवान्  का रूप होता है , थोड़ा खाना दे दो ना , मेरे पति को बहुत जोरो की भूख लगी  है !''
 -'' भिखारी हो कर जुबान लड़ाती है मेरे से '' ये कह  तैश में आ कर उसमे मुझे अपनी लात से धक्का दे दिया , गिरने से मेरे थोड़े घुटने छिल गए , दर्द हो रहा है !''
'' वाह  रे ,सभ्य समाज !ख़ाने में धक्का खैर , ये  तो हमारे जीवन  का एक हिस्सा सा बन गया है फिर हम लोगो की और कालू की किस्मत में अंतर है भी कितना ?!'' मंगला आक्रोश में बोला !
'' सिर्फ इतना ही की हम कहे तो इंसान जाते है और ये जानवर के !'' रुकमा अपनी चोट पे फूंक मारती बोली !
'' अरे , सुनो !खुशबू से लग रहा है की कही परांठे भी कही बन रहे है , है ना !'' मंगला मुस्कुराता हुआ अपनी घ्राण शक्ति से सूंघता सा बोला !
'' लगता तो है , चलो हम उस कचरे की ढेरी क पास चल कर बैठे तो तुम्हारे लिए ठीक रहेगा !'' रुकमा सूखी  रोटी को कटोरे में देखती हुई बोली !
सुनील गज्जानी

Saturday, May 4, 2013

कविताएँ



.............................आता है नज़र  

सपेरा, मदारी खेल नट-नटनी का
बतलाओ जरा कहाँ आता है नजर ?

खेल बच्चो का सिमटा कमरो में अब,
मासूमों को लगी कैसी ये नजर ?

वैदिक ज्ञान, पाटी-तख्ती, गुरू-शिष्य अब,
किस्सों में जाने सिमट गए इस कदर,
नैतिकता, सदाचार अब बसते धोरों में
फ्रेम में टंगा बस आदमी आता है नजर।

चाह कंगूरे की पहले होती अब क्यूं,
धैर्य, नींव का कद बढने तक हो जरा,
बच्चा नाबलिग नही रहा इस युग में
बाल कथाऍँ अब कहीं सुनता आता है नजर ?

अपने ही विरुद्ध खडे किए जा रहा
प्रश्न पे प्रश्न निरुत्तर मै जाने क्यूं ?
सोच कर मुस्कुरा देता उसकी ओर
सच, मेरे लिए प्यार उसमें आता है नजर।
 सुनील गज्जानी

Saturday, April 13, 2013

विक्रम संवत २ ० ७ ० मंगल मय रहे

 विक्रम संवत २ ० ७ ० मंगल मय रहे
गुरूवार से  भारतीय नव वर्ष विक्रम संवत शुरू  गया , वैज्ञानिक काल गणना के आधार पर पूरी तरह से प्रमाणिक साबित हो चुका विक्रम संवत कायदे से ख़ुशी का उत्सव का मौका है लेकिन कही भी कोई हलचल  नहीं है ना टेलीविज़न पे , शायद लग रहा है की भारतीय नव वर्ष दबे पाँव आता है ! चारो और शान्ति कही कोई नव वर्ष की धूम नहीं जो इंग्लिश सालो में होती है ! इतना अंतर क्यूँ हो गया है इन के बीच ! किसका दोष , किसका नहीं है दोष , ये मूल्यांकन करने की क्या आवश्यकता है मेरे विचार से नहीं , क्यूंकि इसका मूल्याकन करेगा कौन ? हम ही में से ना , वो दोषी किसे बनायेगे .. केवल मैं .. मैं का उद्हारण दे कोई तो कोई निष्कर्ष निकल सकता है .. इस पे मंथन की सोच भी निरर्थक  है !  ये सामूहिक ही दोष है ! जिस में हमने अपने सनातन वर्ष को दोयम बना दिया , ये आत्मिक सवाल है सभी के लिए ! क्या कही उपद्रव करने से या बदसुलूकी करने से कही कोई किसी '' डे '' पे फर्क पडा है , शायद नहीं .. स्प्रिंग को दबाने से सदा उछलती है . दबती नहीं है ये हम अक्सर देखते ही है !इस का हल भी किसी के पास नहीं हो सकता , आज समाज में रुदिवादिता कम और राजनीत वादिता ज़्यादा नहीं आती है ! युवा वर्ग आज का बीस साल के पहले के किशोर से कही ज्यादा फ़ास्ट है , इस युवा ने अपने अपने आप को आज के मुताबिक़ ढला हुआ है की आज का दौर क्या चाहता है !कही भी चिपके चिपके बाल नहीं , आधुनिक वेश .. और हाथो में पूरी दुनिया मोबाइल में लिए घूमता है ! सब कुछ बदला बदला कल के युवा से अन्दर से उअर बाहर से भी ! आज जनम दिन भी तिथि से नहीं डेट से सेलिब्रेट होता है . और तो और अब घरो में वो बुजुर्ग भी कहा है जो परियों की कहानी राजा  की कहानियां सुनाती हुई कही नज़र नहीं आती , क्यूंकि आज कही बच्चा होता ही अहि है ,अपनी उम्र से पहले ही बड़े हो जाते है ! हम अपने संस्कारों से दूर होते जा रहे है , क्या हासिल करने . किसी को पता नहीं ! बस एक बहस की सी बात है ! भारतीय नव वर्ष अपना मुह नीचे किये हर साल चला आता है और चला जाता है अपने द्वन्द में ही , बस हमारे भारतीय माह के नाम, तिथि  तभी याद आते है अक्सर जब घर में किसी दिवंगत को श्राद आना हो ! हम भले ही कितने ही आधुनिक हो जाए मगर हमे रहना अपने संस्कारों में ही चाहिए ! अपनी ये बात मुकेश के गीत की पंक्तिया देते हुए करूंगा की '' मेरा जूता है जापानी ये पतलून इंग्लिस्तानी सर पे लाल टोपी रुसी फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी ' भारतीय नव वर्ष विक्रम संवत२ ० ७ ०  आप के लिए मंगल मय  हो !

Saturday, March 30, 2013

सम्मान

DSC_0124.JPG                  वयो वृद्ध यज्ञाचार्या ,  प्रकांड विद्वान , दुर्गा उपासक श्री युत आदरणीय पंडित श्री नथमल पुरोहित जी का पूज्य पिता जी की स्मृति में गठित संस्थान '' श्री मोती लाल गज्जानी स्मृति संस्थान '' द्वारा का सम्मान किया गया और वृक्षारोपण किया गया !
 दिनाक २ ५ /३ /२ ० १ ३ को !

           











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Saturday, March 23, 2013

एक ये २ ३ मार्च भी , मेरे जनक को समर्पित !

    एक ये २ ३ मार्च भी , मेरे  जनक को समर्पित !

आज पूरे भारत वर्ष में '' शहीद दिवस '' मनाया जा रहा है . अमर  शहीद भगत सिंह , राजगुरु और सुखदेव की स्मृति में ! जिस प्रकार उन्हें हर भारतीय नागरिक विस्मृत नहीं कर सकता उसी प्रकार , मेरे लिए भी ये दिन एतिहासिक है जिस मैं अपने जीवन में कभी विस्मृत  नहीं कर पाउगा ! गुणीजनों , मैं आज का पावन दिन ,आप से सांझा करना चाहूंगा अपने श्रदेय पूज्य पिता जी निमित की आज के दिन ही मेरे जनक मेरे पिता  जी अपने भरे पूरे परिवार को छोड़ मोक्ष को प्राप्त हो गए थे २ ३ मार्च २ ० १ १ उस  दिन बुध वार था , वे लगभग डेढ़ माह जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करते  रहे , कभी कोमा में रहते तो कभी अर्ध कोमा में .डॉक्टर्स की सलाह से घर  पे ही  उपचार शुरू करवाया , क्यूंकि वर्ष २ ० ० ७  में वे इस अवस्था में आये तो डॉक्टर्स ने कह दिया था की अब '' हेंडल विथ केयर '' रखना क्यूंकि अब ये कांच के बर्तन की तरह है थोड़ा सा भी चूक हुआ तो बर्तन .......  ! किडनी पे उनके असर था , कमज़ोर हो गयी थी , इसकी वजह भी डॉक्टर ही था जो हमारे शहर का नामी है , कारन था की मेरे पिता जी वजन में थोड़ा सा ज़्यादा हो गए तो चलते तब हाफ्ने लगते थे जब उन डॉक्टर महोदय को बताया तो उन्हें ज़बरदस्ती दमे का मरीज बना दिया की सांस फूलती है इसलिए और जनाब ने हाई डोज़ की दवाईया दे दे कर इस का मरीज़ बना दिया , ये पता हमे तब चला जब तबीयत ज़्यादा बिगड़ी और हस्पताल ले गए वह भी द्वन्द रहा पहले की तरह ही एक और डॉक्टर महाशय ने टी बी बता .टी बी का मरीज बना दिया और उनकी भी हाई डोज़ चालू हो गयी , बेचारी किडनी कितना सहन कर सकती है हाई डोजो का . असर पड़ता गया . पिता जी का जीवन ज्वार भाटे की मानिंद कभी कोमा में अर्ध कोमा में चलता रहा . बिमारी कुछ इलाज़ कुछ होता रहा  , इस दौरान पूनम भा ( जो समाज सेवी है } का भरपूर सहयोग रहा चाहे कितनी ही कड़क ठण्ड पद रही थी वे हर उस समय मोजूद रहे या आये जब जब हमे उनकी आवश्यता लगी खैर फ़न्नु भा , मून भाईजी तो थे ही ! मैंने एक ही बात सरकारी हस्पतालो में नोटिस की अगर आप की कोई पहुँच है और दवाइयों की समाज है तो ये हस्पताल उचित है , मरीज़ ठीक हो सकता है वर्ना भगवान ही पालनहार है !मरीजों को अपनी बिमारी के अतिरिक बेशुमार बदबू भी सहन करनी पड़ती है और रहे परिजन तो वे जाए कहा 'हस्पताल की ये महक अब भी नासिका में महसूस होती है ! खैर… अन्यथा अपने को और मैं क्यू कुरेदू . दर्द मुझे ही होगा , अब भी वो द्रश्य मेरे जहाँ में ज्यू का त्यूं स्थिर है जब पिता जी अपनी देह त्याग बैकुंठ को प्रस्थान कर गए थे तब वे सोये हुए बड़े ही मासूम लग रहे थे . किसी बच्चे की तरह . अपना एक हाथ गाल के नीचे रखे और एक उस हाथ प अपनी हथेली रखी हुई थी , चेहरा एक दम शांत . कोई चिंता का भाव नहीं और ना ही कोई सलवट थी माथे पे . जब भाभी जी ने कहा की पापा का पेट नहीं हिल रहा है , क्यूँ की उनका पेट भीतर पानी होने के कारण इतना बढ़ गया था की सांस लेते समय पेट हिलता हुआ दूर से ही अहसास कराता था , मैं रात को पापा क पास ही बैठा रहता था मैंने जितना समय २ ० ० ७ से २ ० १ १  के बीच का जितना समय उनके साथ बिताया उतना कभी नहीं , क्यूंकि मैं उन से डरता बहुत था , नज़रे मिलाने की हिम्मत नहीं होती थी मेरी ! मैंने पापा की नब्ज़ देखी धड़क नहीं रही थी , मैंने रात को भी देखि नब्ज़ बहुत धीमी चल रही थी , मन का आशंका इस अनहोनी पे उठी थी , मगर मैंने अपना उस समय सर झटक दिया .अगर हम ज्योतिष को माने तो कुंडली में था की जब तक पापा के पद पोता नहीं होगा . तब तक कुछ नहीं होगा . हम सब तसल्ली में थे की अभी पापा का पोता तो छोटा ही है , पडपोता तो क्या अभी सगाई के लिए भी दूर तक आसार नहीं है , कहते है ना की होनी को कौन टाल सकता है . हम सब ने अपने पूरे  खानदान को याद किया तो अवाक रह गये  की पापा तो पद दादा बन चुके है , भले ही रिश्ते में हो ! सभी सिहर उठे .. , ये मानना पडा की अगर सही आंकड़े हो तो ज्योतिष से हर बात जान सकते है , . पापा की नब्ज़ शांत थी मन हिलोरे मारने लगा और आँखों से पानी टपकने लगा . मैं हाथ जोड़ पापा की देह के पास पास बैठ गया . कुछ ही क्षणों में एक जीव को है से थे में परिवर्तित होता देखा की मौत कैसे दबे पाँव आती है कैसे अपना काम कर चल देती है ये सुना ही था अब साक्षात देख भी लिए ! अपने प्रिय पिता के रूप में देह से देहान्तर होने तक ! अपनी समस्त अभिव्यक्ति पूज्य पिता जी को ही सपर्पित है इस ब्लॉग के रूप में तो ये अभिव्यक्ति , शब्दाञ्ज्जलि उन्ही को अर्पित ! शत शत नमन !

Friday, February 15, 2013

लघु कथाएँ

{१}
''यथार्थ ''
'' माँ कितना अच्छा होता कि हम भी धनी होते तो हमारे भी यूही नौकर-चाकर होते ऐशोआराम होता ''
'' सब किस्मत कि बात है, चल फटा फट बर्तन साफ़ कर, और भी काम अभी करना पड़ा है! ''
माँ-बेटी बर्तन  मांझते हुए बातें रही थी !
'' माँ ! इस घर की सेठानी थुलथुली कितनी है, और बहुओं  को देखो हर समय बनी-ठनी घूमती रहती हैं, पतला रहने के लिए कसरतें करती है .. भला घर का काम-काज, रसोई का काम, बर्तन-भांडे आदि माँझे तो कसरत करने कीज़रूरत ही नहीं पड़े, है ना माँ ?
''बात तो ठीक है.., बस हमे भूखो मरना पड़ेगा !"

{ २}
सौदा
''साहब ! मैंने ऐसा क्या कर दिया जो मुझे बर्खास्त कर दिया'' वृद्ध चपड़ासी बोला !
"तुमने तो सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया था, जिससे मुझे आघात पंहुचा''  अधिकारी बोला !
'' साहब ! मैं समझा नहीं ? ''
'' ना तुम बारिश में कई दिनों से भीग कर ख़राब हो रहे फर्नीचर को महफूज़ जगह रखते और ना ही नया फर्नीचर खरीद की जो स्वीकृति मिली थी, वो ना निरस्त होती. अधिकारी ने लाल आँखें लिए प्रत्युत्तर दिया.
सुनील गज्जाणी