Thursday, May 23, 2013

लघु कथा

   लघु कथा                                   (भूख  )
मंगला भिखारी दर्द से  करहा रहे कालू कुत्ते के पाँव को सहलाता हुआ बोलो '' बेचारे भूखे को रोटी की बजाय लट्ठ खिला दिया , जानवरों की तो कोई कद्र ही नहीं करता !''
'' जब से आटे के भाव बदे है , लोगो ने रोटिया देनी कम कर दी है कहते है की अब रोटिया गिन कर बनाते है , हमारी भी दो चार रोटिया गिन ले तो पहाड़ थोड़े ही टूट पडेगा उन पे , बेचारे कालू  को जोर से लगी है !'' उसकी पत्नी रुकमा बोली !
''कालू  भूख में भूल गया था की ये उस सेठ के बंगले के सामने खड़ा कूकने लगा जहा चौकीदार लट्ठ लिए  खडा रहता है !'' मंगला बोल !
'' इसमें इस का क्या दोष . जब सेठ के नौकर सेठ के पालतू कुत्ते को बिस्किट खिला रहा था तो इस के मुझ में भी पानी आ गया होगा . सोचा होगा की जब इसे बिस्किट खिला रहा है तो मुझ भी खिलाएगा , मैं भी तो कुता हूँ !''  रुकमा ने उतर  दिया !
'' दोनों कुतों की किस्मत में भी फर्क है,.... गरमा गर्म बन रही घरो में रोटियों की महक से मेरी भूख भी भड़क रही है !''
'' मेरे कटोरे में सूखी रोटी है !''
'' पगली ! मुह में दांत होते तो ये भी खा लेता !''
'' मैं कही से मांग कर लाती हूँ !''
रुकमा चल देती है , मगला दर्द से करहा रहे कालू कुत्ते को पुचकारने लगता है . रोटियों की महक मगला के मुह में रह रह पानी भर रही थी ! कुछ समय बाद रुकमा लंगडाती हुई आई !
''क्या हुआ '' चौकता हुआ मंगला बोला !
'' थोड़ी दूरी पे नया घर बना है इस उपलक्ष्य में वहा  खाने का कार्यक्रम चल रहा था, खान की महक बहुत अच्छी आ रही थी शायद  पकवान भी थे ,महक से लग रहा था मैं मन ही मन खुश हो रही थी की आज हमे मिठाई भी खाने को मिलेगी , मैं ये  खयाली पुलाव लिए उस घर के दरवाज़े के पास जा कर खड़ी हो गयी तभी उस घर की कोई महिला सदस्या आई उसे देख मैं बोली - ;; माई ! कुछ खाने को दो ना मेरे पति भूखे है !''
''बाह्मण भोजन से पहले किसी को कुछ नहीं मिलेगा और हां , भिखारियों को तो पूरा खाने का कार्यक्रम सलटने के बाद ही!'' वो झिदकती सी बोली !
'' आप लोग ही तो कहते  है की मेहमान भगवान्  का रूप होता है , थोड़ा खाना दे दो ना , मेरे पति को बहुत जोरो की भूख लगी  है !''
 -'' भिखारी हो कर जुबान लड़ाती है मेरे से '' ये कह  तैश में आ कर उसमे मुझे अपनी लात से धक्का दे दिया , गिरने से मेरे थोड़े घुटने छिल गए , दर्द हो रहा है !''
'' वाह  रे ,सभ्य समाज !ख़ाने में धक्का खैर , ये  तो हमारे जीवन  का एक हिस्सा सा बन गया है फिर हम लोगो की और कालू की किस्मत में अंतर है भी कितना ?!'' मंगला आक्रोश में बोला !
'' सिर्फ इतना ही की हम कहे तो इंसान जाते है और ये जानवर के !'' रुकमा अपनी चोट पे फूंक मारती बोली !
'' अरे , सुनो !खुशबू से लग रहा है की कही परांठे भी कही बन रहे है , है ना !'' मंगला मुस्कुराता हुआ अपनी घ्राण शक्ति से सूंघता सा बोला !
'' लगता तो है , चलो हम उस कचरे की ढेरी क पास चल कर बैठे तो तुम्हारे लिए ठीक रहेगा !'' रुकमा सूखी  रोटी को कटोरे में देखती हुई बोली !
सुनील गज्जानी

Saturday, May 4, 2013

कविताएँ



.............................आता है नज़र  

सपेरा, मदारी खेल नट-नटनी का
बतलाओ जरा कहाँ आता है नजर ?

खेल बच्चो का सिमटा कमरो में अब,
मासूमों को लगी कैसी ये नजर ?

वैदिक ज्ञान, पाटी-तख्ती, गुरू-शिष्य अब,
किस्सों में जाने सिमट गए इस कदर,
नैतिकता, सदाचार अब बसते धोरों में
फ्रेम में टंगा बस आदमी आता है नजर।

चाह कंगूरे की पहले होती अब क्यूं,
धैर्य, नींव का कद बढने तक हो जरा,
बच्चा नाबलिग नही रहा इस युग में
बाल कथाऍँ अब कहीं सुनता आता है नजर ?

अपने ही विरुद्ध खडे किए जा रहा
प्रश्न पे प्रश्न निरुत्तर मै जाने क्यूं ?
सोच कर मुस्कुरा देता उसकी ओर
सच, मेरे लिए प्यार उसमें आता है नजर।
 सुनील गज्जानी