Monday, October 20, 2014

दीवाली

दीवाली
एक गंठड़ी मिली
मिट्टी से भरी
फटे -पुराने कपड़ो की
कमरे की पंछेती पर पड़ी !
यादे उभरने लगी
खादी का कुर्ता ,
बाबूजी का पर्याय
बेलबूटे की साडी साडी ,
जो माँ को शादी की पचासवीं वर्ष गांठ पर
बाबू जी ने उपहार में दी थी !
चंद उंगल के मेरे जन्म वाले कपडे
माँ के हाथो बने
गुड्डू की गुड़िया
धरोहर सी बनी मेरे घर की ये वस्तुएं
कबाड़ में पड़ी !
यादे , फिर उभार दी ह्रदय पर दीवाली ने
झाड़ -पौंछ , रंगाई -पुताई  बीच !
सुनील गज्जाणी

Saturday, October 18, 2014



जनम सिद्ध
 कौतुहल हो कर मैंने पूछा उससे -
तुम्हारे ललाट पर ये ताला क्यूँ ,
और किसने लट काया ?
वो बोला-
हुज़ूर ! ये मेरे ही शरीर का अंग है
हमारा जन्म सिद्ध अधिकार
मेरे पुरखो के भी
मेरे भी
और मेरी सतां के भी है
खोजता हूँ , इस ताले कि चाबी
चिलचिलाती धूप में
तरबतर हो कर
मगर असफल !
जंगदार हो गया ताला
खुलता ही नहीं
बंधुआ मज़दूर कि भांति
बंधा है हमारी किस्मत से
महज तिलक समझ इसे
ढांढस बंधाते है एक दूजे का
शायद , अगले जनम में चाबी साथ मिले
यही सोच , दिहाड़ी पर लग जाता हूँ मैं !
मैं विस्मित हो
उसे जाते देखता रहा
उसने कश लिया बीड़ी का
कड़ाही उठाई और जुट गया अपने कर्म में
कोई क्षोभ नहीं चेहरे पर उसके
मगर मेरे !
सुनील गज्जाणी

Friday, January 3, 2014

गतांक से आगे और समापन क़िस्त 
नाटक -  किनारे से परे। .
(पुनः दृश्य अस्मां व सुमन की वार्तालाप संदर्भित)

सुमन- रजामन्दी से।
अस्मां बी- काहे की, जब से मेरी सगाई की बात चलनी शुरू हुई मैं परेशान रहने लगी थी, लेकिन उस दिन आशू की बेरूखी से मैं पागल सी हो गई......... फिर मैने धमकी दे डाली, कहा कि अगर तुम इस जन्म मैं मेरे नहीं हो सके तो मैं अपनी जान दे दूंगी, चाहता तो वो भी था मुझे पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था कठिनाईयों से सामना करने की, फिर जाने क्या जोश आया मेरा हाथ पकड कर चल पडा कोर्ट की ओर.. मैरिज करने, मैरिज की और ले गया अपने घर......... उसकी मां ये देख आग-बबूला हो उठी......... फिर ना जाने क्या सोच ठण्डी पड गई गले लगा लिया।
सुमन- और आफ घर ?
अस्मां बी- घर......... उसके दरवाजे मेरे लिए सदा के लिए बन्द हो गए......... मुझे वो क्षण अब भी ज्यूं का त्यूं याद है......... मम्मी-पापा का हाथ मुझे आर्शीवाद दूधो नहाओ पूतो फलो, सदा सुहागन रहो कि बजाए......... तू हमारे लिए मर गई कह कर दिया और मेरी बनाई वो पेंटिंग जो मम्मी को बहुत अच्छी लगती थी मेरी पहली पहली पेंटिंग......... फाड दिया मम्मी ने, मम्मी ने एक तरह से अपना आत्मिक रिश्ता ही मिटा दिया।
सुमन- क्या खास था उसमें ?
अस्मां बी- मैं ही थी, मम्मी की गोद में जब छोटी सी थी......... मुझे सुला रही थी वो......... तब पापा ने फोटो खींचा था उसी को मैने कैनवास पे उतारा था, नाज करती थी मुझ पे।
सुमन- क्या फिर खैर खबर ली उन्होने.........।
अस्मां बी- क्या मरने के बाद मुर्दे को घर में जगह मिली है कभी......... उन्होने सोचा होगा कि हमारी कोई आशा जन्मी ही नहीं थी, फिर सोचा अपनी सांस में मां की छवि देखूंगी......... मगर किस्मत का अहम् खेल तो अभी बाकी ही था, शादी के तीन साल बाद भी मैं मां नहीं बन पाई थी......... एक बांझ को भला कौन पसन्द कर सकता है.........बच्चों की चाह किसे नहीं होती है......... अपने खानदान का चिराग कौन बुझने देना चाहेगा, मुझे तलाक दे दिया गया य सुना तो पैरों तले से जमीन निकल गई आंखे दबदबा गई......... मिन्नतें करती रहीं कि ऐसी सजा मत दो मुझे......... मगर परिणाम ठाक के तीन पात उस समय रह रह कर मुझे मम्मी का चेहरा याद आ रहा था......... फर्क कुछ भी नहीं था उन दोनों पलों में, मेरी ही तरह सास अडग थी अपने निर्णय पे, अब तक सुना ही था, उस दिन देख भी लिया की जमाना स्वयं को दोहरा रहा था।
सुमन- और अशरफ ?
अस्मां बी- अशरफ......... वो मुआ भी मेरे से धीरे धीरे खिंचने लगा था.........मुझे भी लगने लगा कि उसने मेरी तरह आत्मा से कभी नहीं चाहा......... मेरे कदम-कदम का साथी नहीं बन सका......... अस्मां तो शरीर से मैं बन चुकी थी मगर आत्मा अब भी आशा की थी, उम्र के बीस साल तक भगवान को पूजने वाली पर जल्द ही पैगम्बर साहब कैसे हावी हो सकते थे......... और उस समय मेरी सांस जलभुन पडती थी जब हाथ तो उनकी तरह मगरीब की नमाज अदा करने ऊपर उठते मगर मुंह से-’’जय हनुमान ज्ञानगुन सागर जय कपीस तिहु लोक उजागर‘‘ फूट पडता था और एक कट्टर मुस्लमानी मुझे कोसने लगती यूं धीरे धीरे वो अशरफ के कान भरने लगी......... अशरफ के हर इम्तहान में मैं फेल रही सलाद खाने वाली लडकी को वो कबाब खाने की जिद करता......... मगर धीरे-धीरे, मगर थोडी-थोडी मजबूरन आदि हो गई प्याज, लहसुन की......... मेरी आत्मा मुझे कसोटने लगी मैं उन जंजीरों के घाव भी किसे बताती जिसे मैने चाव से पहना था।
सुमन- छोटे से रास्ते मैं मोड कितने आ जाते हैं।
अस्मां बी- नावाकिफ रास्तों पर आंखे बंद कर चलना भी नहीं चाहिए......... बडे भयानक होते है कुछ मोड।
सुमन- रास्ते और भी तो होते है।
अस्मां बी- सभी खाई की ओर ले जा रहे थे।
सुमन- आप तो अन्जान थी, जो उन रास्तों से वाकिफ था उन्होनें नहीं चेताया।
अस्मां बी- जाने क्यूं उन्होने आंखों पे पट्टी बांध ली थी, उस समय लगा मेरी सांस के भीतर भी एक औरत मन है, मेरे हालात जानती थी उसने मेरा दोबारा निकाह कर दिया वो भी पिता की उम्र वाले आदमी से......... रउूआ था, मेरी उम्र की तो उसकी औलादें थी। यह मुझे बाद में पता चला, उसे मेरे मन से नहीं, अपने सुख दुख बांटने वाली बीवी नहीं बिस्तर पे साथ देने वाली औरत चाहिए थी, मेरे जिस्म पे वो यूं टूटता......... साला बूढा।
सुमन- इतना कुछ होता रहा फिर भी आपने अपने परिवार को कुछ नहीं बताया, क्या इसमें भी जिद थी ?
अस्मां बी- जिद्......... किस मुंह जाती, क्या फिर खून के आंसू रूलाने। उनकी आशा को मैं फिर जिन्दा नहीं करना चाहती थी।
सुमन- टूटी नहीं आप।
अस्मां बी- किस्मत ने ऐसा मौका ही नहीं दिया......... जो ना जीने दे नही थी और ना मरने, किस्मत में अभी हुक्म का इक्का बाकी था।
सुमन- हुकूम का इक्का ? (चौंकती)
अस्मां बी- ताश का पत्ता खोला है कभी।
सुमन- नहीं सुना है।
अस्मां बी- खेल किस्मत का या ताश के पत्ते का।
सुमन- ताश के पत्ते का.........
अस्मां बी- हां री, उस दिन मैं समझ नहीं पा रही थी, बूढा कुछ कहना चाहता था मगर कुछ कह नहीं पा रहा था......... दारू की गिलास होगे तक ले जाता मगर होठ बार बार सूखे ही रह जाते उसके हाथ हर वक्त जो मेरे बदन पे रेंगने को बेताब रहते थे वो मेरे बदन को छूने से कतरा रहे थे......... इच्छा हुई कि पूछूं क्या बात है दिल में तुम्हारे, फिर सोचा कि भाड में जाए इसने मन का रिश्ता बनाया ही कब था, जो नजरें मेरे बदन को घूरती रहती थी वो मेरी नजरों का सामना नहीं कर पा रहीं थी, फिर मनमसोस कर पूछने का
विचार बना ही रही थी मैं कि घडी मैं नौ के डंके बजने लगे......... वो बद्हवास सा चिखता उठा, ’’क्या रात के नौ बज गए वो लोग आते ही होंगे......... बाहर का दरवाजा बन्द है कि नहीं देखता हूं‘‘.........अनहोनी हमेशा बिन कहे आती है मगर उल्टे पांव ही हैदरमियां दौडते हुए आ गए......... ’’मुझे थोडी और मोहल्लत दो सुल्ताना बाई‘‘ वो गिडगिडाता हुआ बोला। ’’सुल्ताना बाई जुबान और वादे की पक्की औरत है तूने जो समय मांगा था मैने दिया, अब तूं अपना वादा पूरा कर‘‘ वो पान चबाती बोली। चार पांच मुशटंडे भी साथ लायी थी। मैं यह माजरा समझ पाती इससे पहले सुल्ताना बाई बोल पडी ’’बेगम तेरे शोहर ने तुझे पचास हजार मैं बेच दिया‘‘ उसके लिए कहना कितना सरल था अचानक ऐसा सुनना सुन्न सी हो गई थी मैं......... वो आगे भी बोलती रही मगर उस समय ऐसा लगा मानो मेरे सुनने की शक्ति नही उसके बोलने की ताकत चली गई......... मेरा दिमाग सुन्न हो गया आंखे पथरा गई।
सुमन- आश्चर्य हो रहा है मुझे।
अस्मां बी- मेरी उस हालत पे।
सुमन- नहीं।
अस्मां बी- तो।
सुमन- इसलिए कि इन्सान अपने आप को कहां लिये जा रहा है।
अस्मां बी- गर्त की ओर।
सुमन- और सुल्ताना बाई.........।
अस्मां बी- कोठे की ओर.........।
सुमन- (आश्यर्च) कोठे की ओर.........।
अस्मां बी- ख्वाहिशें आदमी की खत्म नहीं होती मगर पांव चादर जितना ही फैलाना चाहिए ना पत्तों के खेल में बहुत रूपया जेवर खोया उसने, जमीन जायदाद काफी उसके बाप दादा छोडकर मरे थे। सूद से कमाता था,......... मगर रण्डीबाजी की लत ले डूबी, पर लत इतनी जल्दी कैसे किसी का पीछा छोड दे......... सोचा होगा क्यों ना सुल्ताना बाई से कर्जा लेकर पत्तों में किस्मत आजमाई जाए......... शायद कुछ भरपाई हो सके......... सुल्ताना बाई......... रण्डीबाजी भी वही किया करती था।
सुमन- मगर आपको दांव पे लगाना।
अस्मां बी - दांव पे लगाना नहीं री ......... गिरवी रखना और उसके पास था ही क्या जिसपे हक जमा सकता......... जो कुछ था उस पे हुकुमत औलाद की थी।
सुमन - अपनी बीवी को......... एक इन्सान को......... उफ ! आश्चर्य है मेरे लिए।
अस्मां बी - आदमजात औरत को अपनी प्रोपर्टी से कम नहीं समझता।
सुमन - (गुस्सा) बकवास......... माय फुट।
अस्मां बी - भडकती काहे को है री मगज ठण्डा रख......... (पानी का गिलास पकडाती)
सुमन - (पानी पीने के बाद) .........थैंक्यूं ! फिर.........
अस्मां बी - उस दिन पहली बार छः महीनों में हैदर मियां की आंखों में आंसूं देखे वो भी मेरे लिए बोला ’’अस्मां बहकावे में आ गया था, लालच में भटक गया था, नशे में मैने तुम्हे कब पचास हजार की एवज में दाव पे लगा दिया पता ही नहीं चला......... मगर पाई पाई इकट्ठा कर मैं तुम्हें ले आऊंगा मुझे अपनी जिद की इतनी बडी कीमत चुकानी पडेगी सोचा ही नहीं था। (सुबकना).........बहुत रोयी चिलायी मैं मगर बचाता भी कौन घसीटते हुए ले गए और बैठा दी मुझे कोठें पे, हैदरमियां की पाई पाई के बदले मेरे रोम रोम का सौदा हुआ......... ’ताजामाल‘ है कह कह कर सुल्ताना ने मुझे कई महीन तक दिन में कई बार लोगों के बिस्तर पे परोसा मुझे......... मुहं मांगे दाम कमाती।
सुमन - बडा ताज्जुब है।
अस्मां बी - किस बात का ?
सुमन - क्या उस समय पुलिस के पास जाने, अखबार मे सूचना देने का कुछ नही सूझा।
अस्मां बी - (हंसी) क्या गुलामों को कभी आजाद रखा जाता है कभी।
सुमन - कितनी बद्किस्मती है !
अस्मां बी - दोष भी किसे देती।
सुमन - हैदरमियां कभी आया ?
अस्मां बी - नहीं, सूचना मिली थी।
सुमन - कैसी ?
अस्मां बी - कि इन्तकाल हो गया उसका।
सुमन - कब ?
अस्मां बी - करीब पांच-छः माह बाद सुल्ताना ने सूचना दी कि अस्मां बाई मुकद्दर खराब है तुम्हारा, मगर मेरे लिए बेहद अच्छा, यूं लगा -
’’जीए जा रहा था सदियों से एक खण्डहर यू भी अपने एक अतीत में,
रास नहीं आया ये जमाने को और एक जलजले ने उसे ही अतीत कर दिया,
कहा कि हैदर मियां सदमे मे चल बसा‘‘।
सुमन - ओ शिट, बहुत बुरा हुआ......... अस्मां बी आपकी आप बीती से मेरा रोम रोम खडा हो रहा हैं, हो सकता है आंसू भी छलक पडे।
अस्मां बी - क्या मुझे रूलाना चाहती हो, अगर मेरी आंख में आंसू रचना ने देखा तो फिर डांटेंगी......... आती ही होगी।
सुमन - हां......... कहां गई है वो?
अस्मां बी - चाय बनाकर ला रही होगी ना......... उसकी हसरत भी पूरी हो जाए यही प्रार्थना है।
समन - कैसी हसरतें अस्मां बी......... (रचना चाय की ट्रे व बिस्कुट लेकर आती हैव टेबल पर रख दोनो को एक-एक कप पकडा देती है और स्वयं ले लेती है)
अस्मां बी - इतनी देर कैसे लगा दी बेटी तुमने ?
रचना - जी......... जी वो बिस्किट घर में......... (सकपकाती)
सुमन - (बात काटती) तो क्या बिना बिस्किट मुझे चाय नही पिला सकती थी जो बाजार लेने गई।
रचना - इच्छा तो नाश्ता कराने की थी मगर इस समय अभी कचौरी-समोसा ताजा नही बने है इसलिए बिस्किट लाना बेहतर समझी।
सुमन - (हंसती) तो बिना खिलाए चाय नहीं पिलाती मुझे।
रचना - (हंसती) बिल्कुल अगली बार आप खाना खाकर ही चाय पिएगी।
सुमन - बाप रे बाप ! धमकी है ये।
रचना - नहीं, अतिथि सत्कार है ये।
सुमन - शुक्रिया मेहमान नवाजी का। (बिस्किट खाती)
अस्मां बी - पूरा घर संभालती है ये, सोचती हूं कि अगर ये नहीं होती तो क्या होता मेरा।
रचना - बी ! गलत बल्कि आप नही होती तो मैं कहां होती।
अस्मां बी - भूल जा री उस मनहूस वक्त को......... खैर छोड इस बात को......... चाय पकडा ठण्डी हो रही है (रचना दोनो को चाय के कप पकडाती है और पीने लगते हैं)
सुमन - कभी-कभी कितना अजीब सा लगता है कभी खून के रिश्ते भी अपना हक पूरा नहीं निभा पाते तो कभी अन्जान भी अपनों से बन जाते है।
रचना - सही कहती है आप।
सुमन - बी ! बताऐंगी आप, फिर क्या हुआ ?
अस्मां बी - फिर...फिर हां....मैं उस फलक पें बैठी थी जिससे और बुरा मेरा क्या हो सकता था। कोठा सिर्फ कोठा......... औरत की आबरू बिकने के बाद रहता ही क्या है उसके पास......।
रातें ठलती रहीं,
हम यूं ही चलते रहे,
बुझे बुझे दिनों को हम,
रोशन यूं ही करते रहे।

जाने क्यूं सुल्ताना को मेरे से धीरे-धीरे लगाव होता गया अक्सर वो सुख दुख की अपनी बााते किया करती थी......... ऊब चुकी थी वो अब इस धन्धे से मगर मजबूरी थी, कईं घरों का चूल्हा भी तो बदन से जला करता था और फिर वेश्या को सलीके की नौकरी भी तो कौन देता भला।

सुमन - यकीन नहीं होता।
अस्मां बी - होगा भी कैसे वेश्या को वेश्या ही समझा है ना।
सुमन - मेरा मतलब यह नहीं था।
अस्मां बी - तो साफ-साफ बोलो ना।
सुमन - सुल्ताना.........।
अस्मां बी - सत्तर बरस का बोझा लिए चल बसी वो......... चार साल पहले मुझे अपनी बेटी बनाने के साथ-साथ वसीयत का वारिस भी बनाया, मगर मरते-मरते उसकी जुबां पर बार-बार यही था ’मुझे मुक्ति दिला देना‘ ’मुझे मुक्ति दिला देना‘।
(रचना उनकी बातें बडे गौर से सुन रही थी)
सुमन - किसी बात की......... ?
अस्मां बी - (हंसती) विधाता हिसाब किताब तो सभी का रखता है, अपने अन्तिम दिनों में वो अक्सर बडबडाया करती थी ’’जाने कितनी लडकियों की हया लगी होगी मुझे, जो बिमारी मे
मैं भुगत रहीं हूं......... जाने कितनी मासूमों को अपना तन बेचने को मजबूर किया।‘‘
सुमन - पश्चाताप हो रहा था।
अस्मां बी - चारा भी क्या था, हया तो लगनी ही थी, जाने मैने भी कितनी दी होगी।
सुमन - क्या थी ऐसी ख्वाहिश ?
अस्मां बी - जो कुछ धन-दौलत प्रोपर्टी थी उसे बेच कर उन्हीं के बीच बांट देना जो तन बेचने के लिए मजबूर है ताकि वे स्वाभिमानी से जीवन जी सके।
सुमन - क्या मकसद पूरा हुआ।
अस्मां बी - ये आप शहर मे पता किजिए मैं क्या बोलूं, अगर ना होतो हाथ कंगन को आरसी क्या।
सुमन - यानि.........।
अस्मां बी - रचना है प्रत्यक्ष उदाहरण।
सुमन - (चौंकती) रचना......... यकीन नहीं होता, इतनी प्यारी सी लडकी......... किस कारण से ?
रचना - अन्धी हो गई थी मैं विश्वास कर लिया था अपने ही परिचित पे......... अब अगर वो मुम्बई में मिल गया तो मैं उसका वो हश्र करूंगी जो उम्र भर याद रखेगा (दंात भींचती) (रूआंसा)
अस्मां बी - रोले बेटा रो ले थोडा मन हल्का हो जाएगा......... हमेशा गुमसुम चुपचाप सी रहती है मगर अब कभी-कभी तू कैसी भी ठोकर पूरी उम्र नहीं खाएगी.........।
सुमन - कितनी तरह की कौम है दुनिया मे हर फितरत की, कोई जान पे खेल कर कुछ हासिल करना चाहता है लेकिन कोई दिल से खेल कर क्या हासिल करना चाहेगा....उफ.......।
रचना - पता नहीं मगर अमूमन शख्स अन्धी दौड में शमिल होना चाहता है लेकिन बिना अन्जाम जाने अन्धी दौड अन्धे कुऐं तक की ही होती है।
सुमन - रोचक विषय है मेरे लिए.........।
रचना - हजारों पेट पे लात पड गई जब मुम्बई मे बार-क्लबों मे सरकार ने डांस बन्द करा दिया मानो कंगाली में आटा गीला होना......... मेरी हसरतें टूटती सी लगने लगी......... मां-बाप ने ताउम्र चाल ही देखी है चाहती थी उनकी अन्तिम सांसे खल में नहीं फलेट में टूटे, सौगात दू मै उन्हे फलैट का......... मेरे नेत्राहीन पिता अक्सर अपने एक प्यारे फलेट का सपना देखते हैं......... अपने छोटे भाई बहन को उस मुकाम तक पहुचाऊं कि लोग उन्हें सलाम करे......... मैं वो कमी उनको नहीं देना चाहती थी जो मैने देखी थी मैं नहीं पढ पायी अपनी गरीबी के कारण मगर मैं उन्हें इसका एहसास नही कराना चाहती थी मगर सब बेकार यू लगा जैसे किसी ने वपने छिन लिए मुझसे कसमसा उठी मगर करती भी तो क्या नाचने के शिवाय और आता भी कुछ नहीं था नौकरी नौकरानी बनने के अलावा कही मिलती नहीं थी जो मेरे सपनों को पाताल से भी कहीं नीचे ले जा रहा था......... एक दिन एक मित्रा के छलावे में आ गई इस उम्मीद में कि एक शादी के फक्ंशन में नाचने पर कम से कम दस हजार रूपये मिलेंगे मगर दूसरे शहर जाना पडेगा......... मजबूरी थी करती भी क्या ’’हां‘‘ कहना पडी चल पडी मैं उसके साथ मगर होना कुछ और ही था......... मुझे फंक्शन के बहाने होटल ले गया। धन्धा करवाना चाहा मगर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था......... जाने किसकी सूचना पर वहां अचानक पुलिस पहच गई वरना शायद आज मैं भी अस्मां बन गई होती। (भर्राना)
अस्मां बी - अगले दिन जैसे ही मैंने यह खबर पढी......... चल पडी पुलिस स्टेशन, छुडा लाई इसे।
रचना - एहसानमन्द हूं मैं अस्मां बी का मैं.........।
अस्मां बी - काहे का री, मुझे तुझ में एक आशा दिखाई दी थी (रचना गले लग सुबकती है) चुप हो जा वर्ना मैं रो दूंगी......... अच्छा बता तूने अपने घर पे यही सूचना भिजवायी थी ना कि तुझे अच्छी नौकरी मिल गई है इसलिए अचानक यहां आना पडा और जाते वक्त अपनी तनख्वाह १०,००० रू. ले जाना मत भूलना।
रचना- हां ! आफ साथ पन्द्रह दिन एक मुद्दत से लगे है मुझे ......... दिल दे बैठी हूं तुम्हें.......।
अस्मां बी - बहका मत मुझे (हंसती)......... फिर सुल्ताना बाई के इस घर मे अस्मां बी तन्हा हो जाएगी मुझे इतनी जल्दी किसी से प्यार क्यूं हो जाता है री (भर्राना)
रचना - जो खुद प्यार मे डूबा हो वो भला कैसे बता सकता है (भर्राना)
सुमन - अगर मैने किस्से नही सुने होते तो एक कहानी हकीकत कभी नही बन पाती मेरे लिए (टेप का बटन बन्द करती) अस्मां बी मेरे लिए आपकी मुलाकात अतिस्मरणीय रहेगी। पढने वाले भी ट्रू स्टोरी का कॉलम ’आशा बनाम अस्मां‘ को नहीं भूल नहीं पाऐंगे।
अस्मां बी - (भर्राना) पर मुझे कौन याद रखेगा.......... मैं हिन्दू होकर हिन्दू नहीं बन पायी और मुस्लिम होकर मुसलमान ना बन पायी, क्या जात, क्या धर्म होगा मेरा पता नहीं।
’’गुजरी जिन्दगी मलाल रही मेरी,
पर कज्जा के बाद तो गम ना देना।
फेंक देना बीच राह में मुझे मगर,
इल्तजा कफन सलीके से ओढा देना।

(प्रकाश धीरे-धीरे मद्धम हो जाता ह)

।।समाप्त।।

Thursday, December 19, 2013

 (दूसरी क़िस्त )
 नाटक    ''' किनारे से परे '''
दृश्य दो
(अन्धकार में सिर्फ आवाज) मेरा जीवन उस समय शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह खिल रहा था, उमंगे नादान हिरणी की तरह गुलाचे भर रही थी, भूल गई थी कि पूर्णिमा के बाद अमावस्या ही आती है और अधिक उछल-कूद पर गिरने का ही डर रहता है......... (प्रकाश)
आशू - खामोश क्यूं हो, ताज्जुब हुआ ?
आशा- सोच रही हूं कि अच्छा होता हमारा रिश्ता यूं ही चलता रहता।
आशू - भला कब तक ?
आशा- जब तक हमारी शादी की बात तय नहीं हो जाती।
आशू - बेवकूफ हो, प्यार मे दहलीज लांघना इतना आसान नहीं है।
आशा- क्यूं ? इसलिए कि मैं एक हिन्दू और तुम मुस्लमान हों।
आशू- आशा, ऐसी बात नहीं है धर्म तो क्या किसी विपरीत समाज को भी प्यार में लांघना इतना सरल नहीं होता।
आशा- तो यूं क्यूं नहीं कहते कि डरते हो तुम।
आशू - ओफ्फो ! (झुंझलाहट)......... आशा, तुम समझने की कोशिश करो, हम कोई शख्सियत नहीं है जो लोग हमे पलको पे बिठा लेंगे, फासले भी कितने है हमारे बीच......... मेरे एक दिन की कमाई शायद तुम्हारे एक दिन के खर्चे के बराबर होगी और तुम्हारी इतनी पढाई मेरे लिए सपने समान है......... तुम मेरे जज्बात समझ रही होगी, और तो और तुम मेरे परिवार को भी नहीं जानती हो, हम दोस्त ही अच्छे रहेगे।
आशा- बडे-बुजुर्ग कहते है कि जोडयां विधाता ही बनाता है, फिर बन्धन सीमाऐं क्या चीज है,
- मगर ये देन भी तो उन्हीं की ही है।
आशा- और विधाता की देन......... भूल गए, जाने कितनी भीड थी उस ट्रेन में जब बडौदा में बाढ के पानी में ट्रेन फंस गई थी तुम भी सफर कर रहे थे ’यह इत्तेफाक ही था कि इण्टरयूनिवर्सिटी डांस कम्पीटीशन मे सहेलियो की जबरदस्ती से मुझे भाग लेने जाना पडा।
आशू - और डांस ग्रुप में तुम सैकिण्ड भी आयी।
आशा- वो मेरे जीवन का अहम मोड था।
आशू - मालूम है, बाढ का पानी लगतार बढ रहा था, अगले पल क्या होगा पता नहीं........ जाहिर है, तीन-चार दिन में खाने की चीजें भी खत्म हो गई थी, अब क्या खाऐं तुम्हारी टीम को समझ नहीं आ रहा था।
आशा- हम सब मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि है भगवान तू अपना कोई दूत तो भेज........।
पेट में चूहे जो कूद रहे थे। भगवान ने सुनी भी, उसी डिब्बे में तुम सफर कर रहे थे, वो भी फास्ट फूड के पैकेटों के साथ।
आशू - क्या करते, नौकरी भी तो नमकीन एजेन्सी मे थी, प्रॉडक्ट की मार्केटिंग करने मुम्बई ही जा रहा था।
आशा- और चहलकदमी.........।
आशू - यूं ही उपन्यास पढते पढते उब गया था सो डिब्बे में यूं ही चहलकदमी करने लगा और पांव भी ठिठके तो तुम्हारे केबिन के सामने ही नजरें तुम्हारे चेहरे पे जमे बिना नहीं रही मानो कुछ कह रही हो।
आशा- सही समझा था उस समय यही लग रहा था कि काश किसी के पास कुछ खाने को एक्सट्रा हो।
आशू- आखिरकार तुम्हारी मैडम हिम्मत करके पूछ ही बैठी कि ’’खाने की ट्रेन में व्यवस्था हो सकती है भैया ?‘‘
आशा- और आखिरकार जनाब के पास जो सैंपल का बडा पैकेट था लेकर ही आए।
आशू- सिर मुडाते ही जैसे ओले पडे, झपट पडी थी तुम्हारी सहेलियां मानो मुद्दत बाद खाने को मिला हो।
आशा- हालात ही कुछ ऐसे बन गए थे क्या करते।
आशू- मगर मेरे लिए दो ताज्जुब की बातें थी।
आशा- कौन कौन सी ?
आशू- पहली तो ये कि क्या पानी का हौज साथ ले गई थी जो पीती रही तीन चार दिन।
आशा- वो......... वो मगर थोडा थोडा ही टॉयलेट के पास जो वॉशबेसिन है ना.........।
आशू- (बीच में ही) छी ! कितने गन्दे हाथ लगते है उस पे तो अरे बाप रे बाप।
आशा- आशू, प्लीज कुछ मत बोला, अब घिन्न सी आती है उस पल को याद कर।
आशू- कोई बात नहीं मैं किसी से यह नहीं कहूंगा, दरअसल मुझे ये बात तब दिमाग में आई जब मेरी पानी की बोतल खत्म हो गई थी और मैं उसी से.........।
आशा- (खिलखिलाती) मिस्टर, आईने के सामने खुद को कभी छिपाया नहीं जा सकता। (दोनों हंसते हैं) कहीं दूसरा ताज्जुब भी कहीं ऐसा ही तो नहीं है।
आशू- ऐसा तो नहीं लेकिन मुझे बिना जाने पहचाने ही पैकेट ले लिया और खाने पे टूट पडी अगर उसमें कुछ मिला होता तो.........।
आशा- मिस्टर ! भूल रहे हो तुम, अपने परिचय में तुमने यह नहीं था कि मैं तुम्हारे ही शहर का रहने वाला हूं और रेजिडेन्स उस जगह बताया जिसे पूरी तरह जानती हूं।
आशू- क्या इतना काफी था ?
आशा- इंसानियत और विश्वास अभी तक जिन्दा है।
आशू- सज्दा करता हूं ऐसे नेक दिलों में। एक बात और पूंछूं।
आशा- रोका है।
आशू- फिर भी, तुम रह रह कर तुम मेरी ओर क्यूं देख रही थी ?
आशा- क्यूं अपनी नहीं कहोगे।
आशू- जाने क्यूं तुम्हारी ग्रुप की लडकियों में से नजरें बरक्स तुम्हे ही देखना क्यूं चाहती थी।
आशा- यही अगर मैं कहूं तो।
आशू- तभी बाकी टीम मुझे आशू भैया आशू भैया कह कर पुकारती थी बस तुम्हीं थी जो मुझे नहीं पुकारती थी।
आशा- बिना कहे ही तुम मेरा काम कर देते तो मैं क्यूं पुकारती भला।
आशू- ये बात भी सही है
आशा- मेरे जहन मे अभी भी वो पूरी बातें फिल्म की तरह चल रही थी।
आशू- हां मेरे भी.........इस बीच हमारी दोस्ती भी हो गई......... मुम्बई तक साथ रहा बेवजह जानती ही हो......... क्योंकी वहां जाने का उद्देश्य तो तुम लोग चट कर चुकी थी........ खैर बाद मैं नौकरी से भी हाथ धोना पडा।
आशा- क्या तुम इसे संयग नहीं मानते कि विधाता ने ही हमे मिलाने के लिए यह खेल रचाया था।
आशू- इससे मना ही नहीं करता मैं देखो ना यह संयोग है मैने सिर्फ तुम्हें आशा से ज्यादा कुछ नहीं ताना
आशा- मैने भी नहीं जाना आशू आशुतोष है या अशरफ।
आशू- चाहत थी तुम्हारी मेरे मन में मगर एक डर जरूर था......... और है भी।
आशा- कैसा डर ?
आशू- अपने परिवार से समाज से बेहद एक जरूरी मेरी मां, मानेंगे नही हमार प्यार को।
आशू- मगर मैं अपने परिवार, समाज से वाकिफ था......... बेहद कट्टर है......... रूढिवादी है, मानेंगे नहीं हमारे प्यार को जबकि मेरी मां के जहन में तो अभी तक दहशत बैठी हुई है सन् ९४ के दंगों की, जिसमें उन्होने अपने मासूम भाई को खोया था, चिढती है, किसी भी हिन्दू से।
आशा- और यही बात किसी हिन्दू मां की हो तो.........।
आशू- मैं समझ रहा हूं तुम्हारे जज्बात को।
आशा- समझ ही कहां रहे हो, मेरे ख्यालो में सिर्फ तुम ही बसे हुए हो।
आशू- घूम फिर कर तुम इसी बात पे क्यूं आ जाती हो।
आशा- तो क्या करूं......... मेरे घर वाले मेरी सगाई उससे कर रहे है जिसे ना मैने देखा है और ना जानती हूं।
आशू- तुम्हारे घरवालों से बेहतर तो तुम उसे फिलहाल पूरी तरह जान नही सकती और मां-बाप कभी अपनी बेटी का बुरा नही चाहते।
आशा- बात चाहने की तो है ना।
आशू- चाहत बाद में भी तो पैदा हो सकती है ना।
आशा- अगर यही मैं तुमसे कहूं तो।
आशू- उफ ! कोल्हू का बेल......... (स्थिर)
(आवाज) अन्ततः हमारी बहस सार्थक सिद्ध हुई मैं जीत गई......... आशू ने शादी करना कबूल कर लिया एक परिवार की आशा इस्लामिक बन गई......... आशा अस्मां बन गई निकाह करके।

Tuesday, December 3, 2013

नाटक '' किनारे से परे।

नमस्कार ! आज मैं आप के समक्ष अपना नाटक '' किनारे से परे।  ' रख रहा हूँ।  किस्तो में ! ये नाटक लघु नाटक प्रतियोगिता में प्रथम रहा था ! आप कि क्या प्रतिक्रया है , ये प्रतीक्षा रहेगी !
सादर

किनारे से परे...                                   |  


                                     दृश्य एक          ( प्रथम पर्व )
(मंच पे एक कमरे का दृश्य, धीमी आवाज में गजल बज रही है ’कमरा सुसज्जित एवं दीवारों पे कलात्मक चित्र पोट्रेट टंगे है। कमरे मे हल्की-हल्की रोशनी फैली है। दीवान पे एक वृद्ध महिला लेटी है.........(दरवाजे पे दस्तक)
’’दरवाजा ही तो है......... आ जाओ’’ (मंच पे एक युवती का प्रवेश) ’’रचना! कैसे आई तू.......दरवाजा काहे को खटखटा रही थी ?’’

रचना - दरअसल...... अस्मां बी...
अस्मां बी- तुझे कितनी बार कहा है कि तू सीधी चली आया कर, क्या बेटियों को भी अपने घर मे घुसने के लिए किसी दस्तक की जरूरत है भला।
रचना- ऐसी बात नहीं है अस्मां बी, इस समय आप आराम फरमां रही होती है ना इसलिए सोचा कि.........।
अस्मां बी- तू सोचती बहुत है और हर वक्त गुमसुम मत रहा कर। सब ठीक हो जाएगा री, आ अब बैठेगी भी या यूं ही .........।
रचना- (बात काटते हुए) दरअसल मैं इसलिए आई थी कि आपसे कोई मिलना चाहती है, हालांकि मैने उसे बहुत मना किया कि आप इस समय थोडा आराम फरमांती है, लेकिन मानी नहीं, कहा कि आपने ही उसे बुलाया है।
अस्मां बी- (बैठती) हां-हां शायद वो ही होगी, जब उसका फोन आया तो मैने उसे कहा था कि जब तुम्हें समय हो आ जाना......... मगर समय......... खैर कोई बात नहीं जाने क्यूं मिलना चाहती है.........।
रचना- हां, एक लडकी ही है, क्या उसे ड्राईंग रूम में बिठाऊं ?
अस्मां बी- नहीं री, यहीं ले आना......... मुएं बूढे घुटनों को क्यूं और तकलीफ दूं, यूं ही ये तो दर्द मे घुटे घुटे से जा रहें है‘
रचना- जैसा आप कहे, अस्मां बी। (जाती हुई)
अस्मां बी- बुढापे में कोई रोग भी किसी अभिशाप से कम नहीं होता (बुदबुदाना)
(रचना एक युवती को साथ लाती है, युवती के कन्धे पे पर्स टंगा है व हाथ में एक डायरी है)
रचना- अस्मां बी ये.........।
अस्मां बी- (बात काटती) क्या नाम बताया था तुमने।
सुमन- जी, सुमन (प्रणाम करती)
अस्मां बी- हूं......... याद आया वो ही लडकी जो बार-बार फोन करती थी (सुमन मुस्कुराती) वाकई सुमन ही हो, बैठो ना (सुमन कुर्सी पर बैठ जाती है)
अस्मां बी- रचना.........।
रचना- अस्मां बी, क्या लाऊं ?
सुमन- अस्मां बी, अगर आप मेरे लिए कुछ मंगा रही है तो फिलहाल सिर्फ ठण्डा पानी।
अस्मां बी- उसके बाद दो चाय, क्यूं ठीक है ना सुमन।
सुमन- नो प्रोबलम।
रचना- (प्रस्थान करती) जी, अभी लायी।
अस्मां बी- टेप भी बंद कर देना जरा।
सुमन- क्यूं मेरा आना अच्छा नहीं लगा आपको ?
अस्मां बी- ऐसा क्यूं पूछा री।
सुमन- आप टेप जो बन्द करा रही है।
अस्मां बी- (हंसती) दिमाग वाली हो, ये संगीत, ये गजल मेरे मन को टटोलती है, बडा सुकून मिलता है।
सुमन- (चित्रों को देखती) और ये पोट्रेट.........।
अस्मां बी- कस्से कहते हैं।
सुमन- किसके ?
अस्मां बी- किसके भला........ जो कैनवास पे दिखते हैं।
सुमन- और जो कस्से बिना कैनवास के हो तो ?
अस्मां बी- ये भला कैसा सवाल है।
सुमन- नहीं अस्मां बी.. सवाल नहीं, कुछ कस्से समय के कैनवास पे होते है।
अस्मां बी- (रोष) होते होंगे, मुझे कोई सरोकार नहीं।
सुमन- अगर होतो ?
अस्मां बी- (पूर्वभाव) लडकी! मतलब क्या है तुम्हारा ?
सुमन- जिनसे आप बचना चाह रही है।
अस्मां बी- (मौन) सही कह रही हो, अगर बच जाती तो बिना कैनवास के कस्से कैसे बनते।
सुमन- मेरा यह मतलब नहीं था कि आपका दिल दुखाऊं।
अस्मां बी- तो अब सहलाना भी मुमकिन नहीं है, कहते है ना वीराने में हवाऐं अपने झोके के साथ लायी रेत की एक-एक परत से टीले बना देती है।
सुमन- मैं समझी नह।
अस्मां बी- तुझे काहे को समझना है री, बता क्या काम था मेरे से।
(तभी रचना ट्रे में दो गिलास पानी का लाती है और दोनों को एक-एक थमा देती है) अस्मां बी- जग ही ले आती.........।
सुमन- सही है, गला सूखा जा रहा था, बडी प्यास लगी है शुक्रिया (पानी पीती)
अस्मां बी- क्यूं कोई प्रतिज्ञा कर रखी थी क्या, कि अपने सूखे गले को यहीं आकर तर करोगी। (पानी पीती)
सुमन- अच्छा मजाक कर लेती हैं, मगर ऐसा ही मान लीजिए, आपसे मिलने के लिए कितने फोन करने पडे मुझे (गिलास रखती)
(रचना मुस्कुरा कर ’’जी, जग अभी लायी!’’ कह कर चली जाती है)
अस्मां बी- अपने धुन की पक्की हो, कुछ मेरी ही तरह......... लेकिन मेरे प्रति इतनी दीवानगी, एक बदनाम औरत के प्रति।
सुमन- दुनियां की नजरों मे एक ही पहलू है ये......... मगर दूसरा पहलू नहीं जानती.........।
अस्मां बी- कौनसा ?
सुमन- आशा का।
अस्मां बी- (चौकती) आशा का......... क्या ?
सुमन- इसी प्रश्न का तो उत्तर जानने आई हूं।
अस्मां बी- भला किस हक से.........।
सुमन- एक नारी के।
अस्मां बी- नारी के (हंसी)......... बेगम सुल्ताना की तरह (आक्रोश)
सुमन- (विस्मय) बेगम सुल्ताना की तरह.........? प्लीज, पहेली मत बताईए ना।
अस्मां बी- कभी-कभी मैं यह सोच कर सिहर उठती हूं कि मैं भी कही पहेली ना बन जाऊं मरने के बाद कि दुनिया मुझे मुस्लमान समझेगी या हिन्दू ? उस समय मेरा ही अक्स कहकहा लगाकर मेरा मखौल उडाने लगता है, मरने के बाद मुझे किसी की बहन, बेटी के रूप में याद करेंगे या.........(रूआंसा)
सुमन- या.........
अस्मां बी- (भर्राना) वेश्या अस्मां को.........।
(तभी रचना पानी का जग लेकर प्रवेश करती है कि अस्मां को रोता देख फुर्ती से टेबल पे जग रख उसके पास आती बोली.........)
रचना- अस्मां बी! ये क्या.. डॉक्टर ने मना किया है ना, अगर रोयी तो आंखे खराब हो सकती है, क्या हुआ अस्मां बी ?
अस्मां बी- अगर दिल का दर्द आंसूओं के रूप में बाहर निकलना चाहे तो नासूर के ऑपरेशन को क्या परेशानी होगी।
रचना- फालतू बात नहीं, मुझे बस इतना सुनना है कि आप फिर नहीं रोएगी अगर रोयी तो.........
अस्मां बी- (बात काटती) गुस्सा मत हो री......... इतना प्यार न जताया कर मुझ परं
रचना- पहले आप ही ने जताया था, अब भुगतना तो पडेगा ही ना।
अस्मां बी- ये बात है (हंसी)
रचना- हूं, ये बात है (दोनो हंस पडती है)
सुमन- अस्मां बी......... आप (रचना की ओर इशारा)
अस्मां बी- संवेदना की संतान।
सुमन- कैसे ?
अस्मां बी- कुदरत ने मुझे कोख से मां बनने का मौका नहीं दिया, शायद इसीलिए रचना बेटी बन कर मेरे जीवन में आ गई।
सुमन- कैसे ?
अस्मां बी- क्या जख्म करना चाहती हो ?
सुमन- नहीं जख्मों की वजह जानना चाहती हूं
अस्मां बी- नारी होने की वजह से (हंसती)
सुमन- अगर समझो तो, नहीं तो.........।
अस्मां बी- नहीं तो, क्या ?
सुमन- ओफ्फो ! मेरी बात तो पूरी सुनिए, आप तो फिजूल मे ही......... दरअसल मैं सामाजिक-सांस्कृतिक विषयो पे लिखने वानी एकस्वतन्त्रा पत्राकार हूं।
अस्मां बी- (चौंकती) तो क्या फोन पर जो कहती थी वो.........।
सुमन- (बात काटती) वो भी सच है कि मैं एक समाज सेविका भी हूं।
अस्मां बी- तो आधा सच था ना।
सुमन- मजबूरी थी, अगर पूरा सच कहती तो यूं ही फोन करती रहती
अस्मां बी- होशियार पत्रकार हो (ताली बजाती) शाबास......... क्या छापना चाहती हो हमारे बारे में, भला वेश्या की जिन्दगी मे बिस्तर ही कहीं पीछा नहीं छोडता मानो उनकी जिन्दगी मे इसके अलावा और कुछ भी ना हो, मजबूरी की ओर कोई झांकता नहीं है कोई चाह कर इसमे नहीं आना चाहता मानो इस धन्धे में उसे अपना कैरियर बनाना हो।
रचना- अस्मां बी ! बस रहने दीजिए ना, आपका ब्लड प्रेशर बढ जाएगा।
अस्मां बी- कुछ नहीं होगी री मुझे, तेरी हसरते पूरी करने के बाद ही मैं.........।
रचना- (मुंह में हाथ रखती) बी, ऐसा मत बोलिए, उस हसरतों के फ्लैट में आपको भी रहना हैं
अस्मां बी- बडी भोली है मेरी बच्ची......... चल, कुछ खाने को लाएगी हमारी मेहमान के लिए।
रचना- क्यूं नहीं (प्रस्थान)
सुमन- बेहद चाहती है आपको......... आपने रचना का खुलासा नहीं किया।
अस्मां बी- इत्तेफाक ही था उस दिन की वो न्यूज गौर से पढ ली, वरना रचना शायद जाने कहां अपनी हसरते बिखेर रही होती......... हसरते भी क्या गुल खिलाती है, खैर, छोडों इन बातों को, तुम बताओ किस मतलब से यहां आई हो ?
सुमन- एक उद्धेश्य के लिए।
अस्मां बी- कौन से ?
सुमन- कि अस्मां बी कौन है ?
अस्मां बी- क्या! क्या कहा... कि अस्मां बी कौन है ? क्या चिल्ला-चिल्ला कर बताऊं कि मैं एक वेश्या थी।
सुमन- और उससे पहले।
अस्मां बी- क्या तुम पत्राकारों का काम गडे मुर्दे उखाडना ही है।
सुमन- नहीं, हकीकत बयां करना भी। अस्मां बी ! मैं वो दास्तां जानना चाहती हूं जो आशा से आस्मां बी तक का है, दबे-दबे से अब तक कई बार आफ किस्से सुने हैं मगर मैं अपने कॉलम ’ट्रू स्टोरी‘ के लिए हमेशा उन किस्सों के सटीक तथ्यों को जानकर उन्हें अपनी कलम से जीवन्त करती हूं भले ही उसमें मुझे कितनी ही परेशानियों का सामना करना पडे।
अस्मां बी- धुन की पक्की हो।
सुमन- हंड्रेड परसेन्ट।
अस्मां बी- मेरी ही तरह......... कहते है कि कोई भी काम सच्ची लगन से किया गया हो तो उसे सफलता अवश्य मिलती है, मगर मुझ सी सफलता किसी को भी ना मिले जो मां पिताजी, भाई-बहन के रिश्तों को छोडना पडे, नया रिश्ता भी नही बन सका......... जिन्दगी कहां से कहां ले आयी मुझे एक अन्धी चाहत में (हंसी)......... देखो ना फिर मैं बहक गई... क्या ले बैठी मैं भी, तुम खूब तरक्की करो, नाम रोशन करो।
सुमन- आशीर्वाद दो ना फिर (अपने पर्स से छोटा टेप रिकॉर्ड निकाल रिकॉर्डिंग के लिए टेबल पर रख देती है)
अस्मां बी- ’’गुजर चके हसीं लम्हें,
छोड चुके अब वो मुकाम,
गूंजती सन्नाटे में सदाएँ,
देते खण्डहर कुछ पैगाम,
(प्रकाश धीरे-धीरे मद्धिम)

Monday, November 25, 2013

चुनावी हाइकू

 
 
चुनावी हाइकू
(1 )
देश प्रेम कि डोर
बाते हुई चुनावी
मुद्दे , हे ! राम !

(2 )
एक दूजे की
बस टांग खिचाई
ये , राजनीति ?
(3 )
वोट का तो ये
हक़ है मानव को
सही उम्र पे !

(4 )
मतदान की
है एक भाषा , देखो
सुनो , हो विचार !

(5 )
शक्ति वोट की
आजमा के तो देखो
गर्व करोगे !
सुनील गज्जाणी

Monday, August 26, 2013

लघु कथा

लघु कथा
                                            ब्रेकिंग न्यूज़
लेह में बादल फटने से ज़बर्दस्त तबाही , हर तरफ तबाही का मंजर , इस प्राकर्तिक हादसे में कितना नुकसान हुआ , फिलहाल कहना मुश्किल है ! मगर हर और दिल देहला देने वाले मंज़र है , कही मिट्टी में लाशें दबी पड़ी है , कही टूटे घर , बड़ी बड़ी गाड़ियाँ जल समाधि ले चुकी है यानी हर और खौफ ही खौफ ! लोग खौफज़दा है ! यहाँ किसी भी तरह से समपर्क का साधन कट चुका है , ना लाइट है और ना ही पीने का  पानी लोगो के पास ! प्रशासन और फौज अपनी पूरी तत्परता से अपने राहत कार्यों  को अंजाम दे रहे है .  किसी ने भी अचानक आये आपदा के बारे में सोचा ही नहीं होगा मगर कुदरत किसी को भी नहीं  बख्शता और जो प्राकर्तिक आपदाए आती है उसका ज़िम्मेदार भी तो इंसान ही है जिस का परिणाम  भुगतना तो पडेगा ही ! यहाँ हम जो दृश्य दिखा रहे है वो ……।
एक चैनल का रिपोर्टर हर दृश्य इस तबाही का दिखाता हुआ अपनी रपट कहा रहा था !
कश्मीर में एक घर बड़ी उत्सुकता से टी वी पर ये सब देख रहा था ! सभी के चेहरे शांत ,परिवार की कुछ सदस्यों की नम  आँखे थी तो कोई अपनी  इबादत कर रहा था ! घर में एक दम ख़ामोशी पसरी पड़ी थी मगर टी वी ये मंजर देख वे सिहर उठे !
'' हमे अभी अभी एक सूचना मिली है जिसमे मरने वालो में कुछ की शिनाख्त हुई है जिन के नाम हम टी वी स्क्रीन पे दिखा रहे है …… !'' रिपोर्टर बोला !
'' खुदा खैर करे  हमारे जान पहचान वाला कोई ना हो इसमें !'' उस  परिवार की एक महिला बुदबुदायी
रिपोर्टर की ये बात सुन। ,पूरा परिवार अपना  खौफज़दा चेहरा लिए अपनी नज़रों को टी वी पे दोबारा  गाड ली , मृतको का नाम सुनने के लिए की कही इस हादसे में अपना कोई ना हो , नमाज़ पड़ती महिला बरबस रुक गयी सभी सदस्य एक दूसरे का मुँह  ताकने लगे ! सभी टकटकी लगाये बैठ गए ।  घर में एक दम सन्नाटा , सभी की धड़कने बढ़ने लगी , साँसे मानो थम सी गयी उनकी। सभी के होठ बुदबुदाने लगे अपनी इबादत में की कोई उनके लिए कोई अपशगुनी न्यूज़ ना हो !तभी रिपोर्टर बोला - पहले एक छोटा सा ब्रेक। .! ये सुन मानो सभी की साँसे जम सी गयी !
 सुनील गज्जाणी