Thursday, December 19, 2013

 (दूसरी क़िस्त )
 नाटक    ''' किनारे से परे '''
दृश्य दो
(अन्धकार में सिर्फ आवाज) मेरा जीवन उस समय शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह खिल रहा था, उमंगे नादान हिरणी की तरह गुलाचे भर रही थी, भूल गई थी कि पूर्णिमा के बाद अमावस्या ही आती है और अधिक उछल-कूद पर गिरने का ही डर रहता है......... (प्रकाश)
आशू - खामोश क्यूं हो, ताज्जुब हुआ ?
आशा- सोच रही हूं कि अच्छा होता हमारा रिश्ता यूं ही चलता रहता।
आशू - भला कब तक ?
आशा- जब तक हमारी शादी की बात तय नहीं हो जाती।
आशू - बेवकूफ हो, प्यार मे दहलीज लांघना इतना आसान नहीं है।
आशा- क्यूं ? इसलिए कि मैं एक हिन्दू और तुम मुस्लमान हों।
आशू- आशा, ऐसी बात नहीं है धर्म तो क्या किसी विपरीत समाज को भी प्यार में लांघना इतना सरल नहीं होता।
आशा- तो यूं क्यूं नहीं कहते कि डरते हो तुम।
आशू - ओफ्फो ! (झुंझलाहट)......... आशा, तुम समझने की कोशिश करो, हम कोई शख्सियत नहीं है जो लोग हमे पलको पे बिठा लेंगे, फासले भी कितने है हमारे बीच......... मेरे एक दिन की कमाई शायद तुम्हारे एक दिन के खर्चे के बराबर होगी और तुम्हारी इतनी पढाई मेरे लिए सपने समान है......... तुम मेरे जज्बात समझ रही होगी, और तो और तुम मेरे परिवार को भी नहीं जानती हो, हम दोस्त ही अच्छे रहेगे।
आशा- बडे-बुजुर्ग कहते है कि जोडयां विधाता ही बनाता है, फिर बन्धन सीमाऐं क्या चीज है,
- मगर ये देन भी तो उन्हीं की ही है।
आशा- और विधाता की देन......... भूल गए, जाने कितनी भीड थी उस ट्रेन में जब बडौदा में बाढ के पानी में ट्रेन फंस गई थी तुम भी सफर कर रहे थे ’यह इत्तेफाक ही था कि इण्टरयूनिवर्सिटी डांस कम्पीटीशन मे सहेलियो की जबरदस्ती से मुझे भाग लेने जाना पडा।
आशू - और डांस ग्रुप में तुम सैकिण्ड भी आयी।
आशा- वो मेरे जीवन का अहम मोड था।
आशू - मालूम है, बाढ का पानी लगतार बढ रहा था, अगले पल क्या होगा पता नहीं........ जाहिर है, तीन-चार दिन में खाने की चीजें भी खत्म हो गई थी, अब क्या खाऐं तुम्हारी टीम को समझ नहीं आ रहा था।
आशा- हम सब मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि है भगवान तू अपना कोई दूत तो भेज........।
पेट में चूहे जो कूद रहे थे। भगवान ने सुनी भी, उसी डिब्बे में तुम सफर कर रहे थे, वो भी फास्ट फूड के पैकेटों के साथ।
आशू - क्या करते, नौकरी भी तो नमकीन एजेन्सी मे थी, प्रॉडक्ट की मार्केटिंग करने मुम्बई ही जा रहा था।
आशा- और चहलकदमी.........।
आशू - यूं ही उपन्यास पढते पढते उब गया था सो डिब्बे में यूं ही चहलकदमी करने लगा और पांव भी ठिठके तो तुम्हारे केबिन के सामने ही नजरें तुम्हारे चेहरे पे जमे बिना नहीं रही मानो कुछ कह रही हो।
आशा- सही समझा था उस समय यही लग रहा था कि काश किसी के पास कुछ खाने को एक्सट्रा हो।
आशू- आखिरकार तुम्हारी मैडम हिम्मत करके पूछ ही बैठी कि ’’खाने की ट्रेन में व्यवस्था हो सकती है भैया ?‘‘
आशा- और आखिरकार जनाब के पास जो सैंपल का बडा पैकेट था लेकर ही आए।
आशू- सिर मुडाते ही जैसे ओले पडे, झपट पडी थी तुम्हारी सहेलियां मानो मुद्दत बाद खाने को मिला हो।
आशा- हालात ही कुछ ऐसे बन गए थे क्या करते।
आशू- मगर मेरे लिए दो ताज्जुब की बातें थी।
आशा- कौन कौन सी ?
आशू- पहली तो ये कि क्या पानी का हौज साथ ले गई थी जो पीती रही तीन चार दिन।
आशा- वो......... वो मगर थोडा थोडा ही टॉयलेट के पास जो वॉशबेसिन है ना.........।
आशू- (बीच में ही) छी ! कितने गन्दे हाथ लगते है उस पे तो अरे बाप रे बाप।
आशा- आशू, प्लीज कुछ मत बोला, अब घिन्न सी आती है उस पल को याद कर।
आशू- कोई बात नहीं मैं किसी से यह नहीं कहूंगा, दरअसल मुझे ये बात तब दिमाग में आई जब मेरी पानी की बोतल खत्म हो गई थी और मैं उसी से.........।
आशा- (खिलखिलाती) मिस्टर, आईने के सामने खुद को कभी छिपाया नहीं जा सकता। (दोनों हंसते हैं) कहीं दूसरा ताज्जुब भी कहीं ऐसा ही तो नहीं है।
आशू- ऐसा तो नहीं लेकिन मुझे बिना जाने पहचाने ही पैकेट ले लिया और खाने पे टूट पडी अगर उसमें कुछ मिला होता तो.........।
आशा- मिस्टर ! भूल रहे हो तुम, अपने परिचय में तुमने यह नहीं था कि मैं तुम्हारे ही शहर का रहने वाला हूं और रेजिडेन्स उस जगह बताया जिसे पूरी तरह जानती हूं।
आशू- क्या इतना काफी था ?
आशा- इंसानियत और विश्वास अभी तक जिन्दा है।
आशू- सज्दा करता हूं ऐसे नेक दिलों में। एक बात और पूंछूं।
आशा- रोका है।
आशू- फिर भी, तुम रह रह कर तुम मेरी ओर क्यूं देख रही थी ?
आशा- क्यूं अपनी नहीं कहोगे।
आशू- जाने क्यूं तुम्हारी ग्रुप की लडकियों में से नजरें बरक्स तुम्हे ही देखना क्यूं चाहती थी।
आशा- यही अगर मैं कहूं तो।
आशू- तभी बाकी टीम मुझे आशू भैया आशू भैया कह कर पुकारती थी बस तुम्हीं थी जो मुझे नहीं पुकारती थी।
आशा- बिना कहे ही तुम मेरा काम कर देते तो मैं क्यूं पुकारती भला।
आशू- ये बात भी सही है
आशा- मेरे जहन मे अभी भी वो पूरी बातें फिल्म की तरह चल रही थी।
आशू- हां मेरे भी.........इस बीच हमारी दोस्ती भी हो गई......... मुम्बई तक साथ रहा बेवजह जानती ही हो......... क्योंकी वहां जाने का उद्देश्य तो तुम लोग चट कर चुकी थी........ खैर बाद मैं नौकरी से भी हाथ धोना पडा।
आशा- क्या तुम इसे संयग नहीं मानते कि विधाता ने ही हमे मिलाने के लिए यह खेल रचाया था।
आशू- इससे मना ही नहीं करता मैं देखो ना यह संयोग है मैने सिर्फ तुम्हें आशा से ज्यादा कुछ नहीं ताना
आशा- मैने भी नहीं जाना आशू आशुतोष है या अशरफ।
आशू- चाहत थी तुम्हारी मेरे मन में मगर एक डर जरूर था......... और है भी।
आशा- कैसा डर ?
आशू- अपने परिवार से समाज से बेहद एक जरूरी मेरी मां, मानेंगे नही हमार प्यार को।
आशू- मगर मैं अपने परिवार, समाज से वाकिफ था......... बेहद कट्टर है......... रूढिवादी है, मानेंगे नहीं हमारे प्यार को जबकि मेरी मां के जहन में तो अभी तक दहशत बैठी हुई है सन् ९४ के दंगों की, जिसमें उन्होने अपने मासूम भाई को खोया था, चिढती है, किसी भी हिन्दू से।
आशा- और यही बात किसी हिन्दू मां की हो तो.........।
आशू- मैं समझ रहा हूं तुम्हारे जज्बात को।
आशा- समझ ही कहां रहे हो, मेरे ख्यालो में सिर्फ तुम ही बसे हुए हो।
आशू- घूम फिर कर तुम इसी बात पे क्यूं आ जाती हो।
आशा- तो क्या करूं......... मेरे घर वाले मेरी सगाई उससे कर रहे है जिसे ना मैने देखा है और ना जानती हूं।
आशू- तुम्हारे घरवालों से बेहतर तो तुम उसे फिलहाल पूरी तरह जान नही सकती और मां-बाप कभी अपनी बेटी का बुरा नही चाहते।
आशा- बात चाहने की तो है ना।
आशू- चाहत बाद में भी तो पैदा हो सकती है ना।
आशा- अगर यही मैं तुमसे कहूं तो।
आशू- उफ ! कोल्हू का बेल......... (स्थिर)
(आवाज) अन्ततः हमारी बहस सार्थक सिद्ध हुई मैं जीत गई......... आशू ने शादी करना कबूल कर लिया एक परिवार की आशा इस्लामिक बन गई......... आशा अस्मां बन गई निकाह करके।

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